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________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४, १५ इसका प्रथम स्थान होने का कारण यह है कि यद्यपि सभी जीवग्राह्य वर्गणाओं में अभव्यों से अनन्त गुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण परमाणु होते हैं, वे जीव द्वारा ग्रहण योग्य बनती हैं। अतः इस औदारिक शरीर वर्गणा में भी इतनी संख्या प्रमाण परमाणु हैं लेकिन आगे की वैक्रिय शरीरवर्गणा आदि वर्गणाओं की अपेक्षा इसमें परमाणु अल्प हैं। ____ यही स्थिति वैक्रियशरीरवर्गणा आदि के क्रम के लिये भी समझना चाहिये कि उत्तर-उत्तर की वर्गणा की अपेक्षा पूर्व-पूर्व की वर्गणा में परमाणु अल्प हैं। उक्त कथन से यह आशय फलित हुआ कि जिन वर्गणाओं में अभव्य से अनन्तगुण और सिद्धों के अनन्तवें भाग परमाणु हों, वैसे पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण करके जीव औदारिक शरीर रूप में परिणत करता है और यह जघन्य वर्गणा है। अर्थात् औदारिकशरीरप्रायोग्य जघन्य वर्गणा है और उसमें भी अभव्यों से अनन्त गुण और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण परमाणु होते हैं। उसकी अपेक्षा एक अधिक परमाणु वाली दूसरी ग्रहणप्रायोग्य वर्गणा होती है, दो अधिक परमाणु वाली तीसरी ग्रहणप्रायोग्य वर्गणा होती है। इस तरह एकएक परमाणु को बढ़ाते हुए वहाँ तक कहना चाहिये जब औदारिकशरीरयोग्य उत्कृष्ट ग्रहणवर्गणा हो। ___ जघन्य वर्गणा से उत्कृष्ट वर्गणा में परमाणु विशेषाधिक हैं और उनकी अधिकता इस प्रकार जाननी चाहिये कि स्वयोग्य जघन्य वर्गणा में जितने परमाणु होते हैं, उसकी अपेक्षा उसी के अनन्तवें भाग प्रमाण अधिक परमाणु उसकी उत्कृष्ट वर्गणा में होते हैं। ग्रहणयोग्य वर्गणा में सर्वत्र इसी प्रकार समझना चाहिये। उत्तरोत्तर बढ़ते हुए परमाणु वाली औदारिकशरीर योग्य वर्गणायें जघन्य स्कन्ध में जितने परमाणु होते हैं उनके अनन्तवें भाग प्रमाण होती हैं और समान परमाणु वाली स्वजातीय अनन्त होती हैं
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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