________________
२४
पंचसंग्रह : ६ पंरपरोपनिधा प्ररूपणा
सेढि असंखियभागं गंतु गंतु हवंति दुगुणाई।
फड्डाई ठाणेसु पलियासंखसंगुणकारा ॥६॥ शब्दार्थ सेढिअसंखियभागं–श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण, गंतुगंतु-(योगस्थान) जाने पर, हवंति–होते हैं, दुगुणाई-दुगुने, फड्डाईस्पर्धक, ठाणेसु-योगस्थानों में, पलियासंखस-पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण, गुणकारा—(द्वि) गुण वृद्धि के।
गाथार्थ-श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थान जाने पर आगे के योगस्थान में दुगुने स्पर्धक होते हैं। पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण द्विगुण वृद्धि के स्थान हैं।
विशेषार्थ-गाथा में परंपरोपनिधा से योगस्थानवर्ती स्पर्धकों का विचार किया है। परंपरा से उपनिधा करने को परंपरोपनिधा कहते हैं, अर्थात् किसी भी एक योगस्थान के स्पर्धकों की अपेक्षा जो दूरान्तर्वर्ती योगस्थान के स्पर्धकों का विचार किया जाता है, उसे परंपरोपनिधा कहते हैं। अतः अब इसी दृष्टि से योगस्थानों के स्पर्धकों की संख्या का निर्देश करते हैं- 'सेढि असंखियभागं गंतु गंतु'–श्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थान जाने पर अर्थात् समस्त योगस्थानों में से प्रथम योगस्थान से लेकर सूचि श्रेणि के असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश हैं, उतने प्रमाण योगस्थानों का अतिक्रमण करने के पश्चात् जो योगस्थान प्राप्त होता है, उसमें पूर्व योगस्थान की अपेक्षा दुगने स्पर्धक होते हैं। जैसे कि पहले जघन्य योगस्थान में जितने स्पर्धक हैं उसकी अपेक्षा श्रेणी के असंख्यातवें भाग में रहे हुए आकाश प्रदेश प्रमाण योगस्थानों का अतिक्रमण करने के बाद जो योगस्थान प्राप्त होता है उसमें दुगने स्पर्धक होते हैं 'हवंति दुगुणाई' । । तत्पश्चात् पुनः इस योगस्थान से उतने ही योगस्थानों—सूचि श्रेणि के असंख्यातवें भागवर्ती आकाशप्रदेश प्रमाण योगस्थानों का उल्लंघन