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बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७
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क्रमशः पूर्व - पूर्व की अपेक्षा आगे-आगे की वर्गणा में आत्मप्रदेश घनीकृत लोक के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्य आकाश प्रदेश के बराबर हैं । जिससे उतनी ही अर्थात् असंख्याती वर्गणाएं हो सकती हैं ।
इस प्रकार वर्गणा प्ररूपणा का आशय जानना चाहिये । अब वर्गणा के अनन्तर क्रमप्राप्त स्पर्धक प्ररूपणा और उसके बाद अन्तर प्ररूपणा का विचार करते हैं ।
स्पर्धक और अन्तर प्ररूपणा
ताओ फड्डगमेगं अओपरं नत्थि स्ववुड्ढीए । जाव असंखा लोगा पुवविहाणेण तो फड्डा ॥७॥
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शब्दार्थ - ताओ — उनका, फड्डगमेगं – एक स्पर्धक, अओपरं — इसके अनन्तर, नत्थि — नहीं है, रूववुड्ढीए - एक-एक वीर्याणु वृद्धि वाले, जावतक, पर्यन्त, असंखा लोगा - असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण, पुव्वविहाण - पूर्व विधि, प्रकार से, तो — उसके बाद, फड्डा – स्पर्धक |
गाथार्थ - उन ( वर्गणाओं) का समूह स्पर्धक कहलाता है । उसके अनन्तर एक-एक अधिक वीर्याणु वृद्धि वाले आत्म- प्रदेश नहीं हैं, परन्तु असंख्य लोकाकाशप्रदेश प्रमाण वीर्याणुओं से अधिक वाले आत्म-प्रदेश प्राप्त हो सकते हैं । उसके बाद पुनः पूर्व विधि - प्रकार से स्पर्धक होते हैं ।
विशेषार्थ - गाथा में स्पर्धक का स्वरूप एवं वर्गणा और स्पर्धक के अन्तर को स्पष्ट किया है । स्पर्धक के स्वरूप का निर्देश करते हुए बताया है
ताओ फड्डगमेगं ---- उन वर्गणाओं का एक स्पर्धक होता है, अर्थात् जघन्य वर्गणा से प्रारम्भ कर उत्तरोत्तर एक-एक अधिक वीर्याणु वाली सूचिश्रेणि के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्य आकाश-प्रदेश प्रमाण असंख्याती वर्गणाओं के समूह को स्पर्धक कहते हैं । यानी अनुक्रम से एक-एक वीर्याणु से बढ़ती हुई असंख्याती वर्गणाओं का समूह स्पर्धक कहलाता है | यह पहला स्पर्धक है ।