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________________ पंचसंग्रह : ६ १. अपरावर्तमान शुभ प्रकृतियों की तीव्रता - मन्दता का विचार अनुकृष्टि की तरह उत्कृष्ट स्थिति से प्रारम्भ कर अभव्य - प्रायोग्य स्थिति को छोड़कर शेष स्थितियों में करना चाहिए । अभव्यप्रायोग्य स्थिति १ से ८ तक के अंक द्वारा बताई है तथा २० का अंक उत्कृष्ट स्थिति का दर्शक है । ३२० 3 २. उत्कृष्ट स्थिति के जघन्य पद का जघन्य अनुभाग अल्प है । इसके बाद समयोन उत्कृष्ट स्थिति का जघन्य अनुभाग अनन्तगुण है, उससे भी द्विसमयोन उत्कृष्ट स्थिति का जघन्य अनुभाग अनन्तगुण है । यह तब तक कहना यावत् निवर्तनकण्डक अर्थात् पल्योपम के असंख्यातभाग मात्र स्थितियाँ अतिक्रांत हो जाती हैं । जिन्हें प्रारूप में २० से १७ के अंक तक बताया है । ३. निवर्तनकण्डक से नीचे प्रथम स्थिति का उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुण । जिसे प्रारूप में २० के अंक से बताया है । ४. उसके बाद समय कम उत्कृष्ट स्थिति का जघन्य अनुभाग अनन्तगुण है । जिसे प्रारूप में १६ के अंक से नीचे के अंक से बताया है । निवर्तनकण्डक से नीचे द्वितीय स्थिति में जघन्य अनुभाग अनन्तगुण है, जिसे १५ के अंक से बतलाया है । इस प्रकार तब तक कहना चाहिए, जब तक जघन्य स्थिति का जघन्य अनुभाग प्राप्त होता है । ५. प्रारूप में '' इस प्रकार की पंक्ति परस्पर आक्रांत - प्ररूपणा की दर्शक है । जिसका आशय यह है कि २० के अंक के उत्कृष्ट अनुभाग से १७ का जघन्य अनुभाग अनन्तगुण है और पुनः १६, पुनः १८, पुनः १५ इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति का जघन्य अनुभाग के अंक तक कहना चाहिये । ६. उत्कृष्ट स्थिति के उत्कृष्ट अनुभाग की कण्डकमात्र जो स्थितियां अनुक्त हैं, उसे जघन्य स्थिति पर्यन्त अनन्तगुण जानना चाहिये। जिन्हें प्रारूप में १२ के अंक से ε के अङ्क पर्यन्त बताया है । 00
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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