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________________ बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११२ २४१ संख्यातगुणी है, उससे भी अन्त: कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थितिसंख्यातगुणी है, उससे भी परावर्तमान पुण्य प्रकृतियों के द्विस्थानक रसयवमध्य के ऊपर के जो मिश्र स्थितिस्थान हैं, उनके ऊपर के एकान्त साकारोपयोग योग्य स्थितिस्थान संख्यातगुण हैं, उनसे भी परावर्तमान पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेषाधिक है । उससे भी परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों की बद्धडायस्थिति 1 विशेपाधिक है, उससे भी परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेषाधिक है । इस प्रकार से स्थितिस्थानों का अल्पबहुत्व बतलाने के बाद गाथा का अर्थ किस प्रकार करना चाहिये, इसको स्पष्ट करते हैंचतुस्थानकादि परावर्तमान शुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानक, त्रिस्थानक और द्विस्थानक रस वाले प्रत्येक के यवमध्य से नीचे के और ऊपर के स्थितिस्थान अनुक्रम से संख्यातगुण हैं और गाथा के अंत में रहा हुआ च शब्द अनुक्त अर्थ का समुच्चय करने वाला होने से द्विस्थानक रस यवमध्य के नीचे-ऊपर के मिश्र स्थितिस्थान संख्यातगुण कहना चाहिये तथा शुभ-अशुभ प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध अनुक्रम से संख्यातगुण और विशेषाधिक कहना चाहिये। उनसे परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों के द्विस्थानक, त्रिस्थानक और चतुःस्थानक रस वाले प्रत्येक के स्थितिस्थान के यवमध्य से नीचे के और ऊपर के स्थितिस्थान संख्यातगुण हैं और द्विस्थानक रस यवमध्य के नीचे, ऊपर के मिश्र स्थितिस्थान भी संख्यातगुण हैं । 'च' शब्द अनुक्त का समुच्चायक १ जिस स्थितिस्थान को बांधकर जीव मंडूकप्लुति न्याय से डाय-फाला छलांग मारकर उत्कृष्ट स्थिति बांधे वहाँ से लेकर वहाँ तक की स्थिति को डायस्थिति कहते हैं । अंत कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थितिबंध करके पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव अनन्तर समय में उत्कृष्ट स्थितिबंध कर सकता है, अतएव अन्तःकोडाकोडी सागरोपम न्यून संपूर्ण कर्म स्थिति प्रमाण स्थिति बद्धडायस्थिति कहलाती है ।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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