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________________ बंधनकरण प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११२ २३६ 'वह और अन्य' इस प्रकार जहां तक अध्यवसायों की अनुकृष्टि होती है, उसमें से जिस अध्यवसाय द्वारा द्विस्थानक रस बंधता है, वह अनाकारोपयोग द्वारा बंध सकता है । अब समस्त स्थितिस्थानों का अल्पबहुत्व कहते हैं चउठाणाई जवमज्झ हिदुउवरि सुभाण ठिइबंधा । संखेज्जगुणा ठिइठाणगाई असुभाण मीसा य ॥ ११२ ॥ शब्दार्थ - चउठाणाई - चतुःस्थानकादि, जवमज्झ-यव मध्य, हिट्ठउवरिं—नीचे और ऊपर के, सुभाण - शुभ प्रकृतियों का, ठिइबंध — स्थितिबंध, संखेज्जगुणा - संख्यातगुण, ठिठाणगाई -स्थितिस्थान, असुभाणअशुभ प्रकृतियों का, मीसा - मिश्र, य- - और । - गाथार्थ - - चतुः स्थानकादि रस योग्य स्थितिस्थानकों के यवमध्य से नीचे और ऊपर के स्थितिस्थान अनुक्रम से संख्यातगुण हैं । शुभ - अशुभ प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध क्रमश: संख्यातगुण और विशेषाधिक हैं और उससे अशुभ प्रकृतियों के द्विस्थानकादि रसयोग्य स्थितिस्थानों के यवमध्य से नीचे - ऊपर के स्थितिस्थान और मिश्र स्थितिस्थान संख्यातगुण हैं । विशेषार्थ -- गाथा में समस्त स्थितिस्थानों आदि का अल्पबहुत्व बताया है जितने और जिन स्थितिस्थानों को बांधता हुआ जीव चतुः स्थानक रसबंध करता है, उनका जो यवमध्य वह चतुःस्थानक रसयवमध्य कहलाता है । इसी प्रकार त्रिस्थानक रसयवमध्य और द्विस्थानक रसयवमध्य के लिये भी समझना चाहिये । परावर्तमान पुण्य प्रकृतियों के चतुःस्थानक रसयवमध्य से नीचे के स्थिति-स्थान अल्प हैं, उनसे चतुःस्थानक रसयवमध्य से ऊपर के स्थितिस्थान संख्यातगुण हैं, उनसे परावर्तमान शुभ प्रकृतियों के त्रिस्थानक रसयवमध्य से नीचे के स्थितिस्थान संख्यातगुण हैं,
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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