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________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०७ २२६ गुणे अध्यवसाय होते हैं। आयु, नाम, अंतराय, दोनों प्रकार के मोहनीय-चारित्रमोहनीय और दर्शनमोहनीय के क्रमशः असंख्यातगुणे अध्यवसाय होते हैं। विशेषार्थ-जिस कर्मप्रकृति की जिस अनुक्रम से दीर्घ स्थिति है, उसी क्रम से उनके असंख्यातगुणे अध्यवसाय होते हैं । वे इस प्रकारआयु कर्म के बंध में हेतुभूत स्थितिबंध के अध्यवसाय अल्प हैं । उससे नाम कर्म के और उसके तुल्य स्थिति होने से गोत्र कर्म के असंख्यातगुणे हैं। ___ शंका-आयु कर्म में पूर्व-पूर्व से उत्तरोत्तर प्रत्येक स्थितिस्थान में तबंध हेतुभूत असंख्यात-असंख्यातगुणे अध्यवसाय होते जाते हैं और नाम तथा गोत्र कर्म के प्रत्येक स्थितिस्थान में विशेषाधिकविशेषाधिक होते हैं, तो फिर आयुकर्म के अध्यवसायों से नाम और गोत्र कर्म के अध्यवसाय असंख्यातगुणे कैसे होते हैं ? आयु कर्म के स्थितिस्थानों से नाम और गोत्र कर्म के स्थितिस्थान अधिक होने से कदाचित् विशेषाधिक हो सकते हैं। ___समाधान-आयुकर्म की जघन्य स्थिति बांधने पर तबंध हेतुभूत अध्यवसाय अल्यल्प है और नाम तथा गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति बांधने पर तबंध हेतुभूत अध्यवसाय अत्यधिक हैं एवं आयुकर्म से नाम और गोत्र कर्म के स्थितिस्थान भी बहुत अधिक हैं। अतएव आयुकर्म के प्रत्येक स्थितिस्थान में असंख्यातगुण के क्रम से अध्यवसायों के बढ़ने पर भी और नाम व गोत्र कर्म में प्रत्येक स्थितिस्थान में विशेषाधिक-विशेषाधिक होने पर भी कुल मिलाकर आयु कर्म के स्थितिबंधाध्यवसायों से नाम और गोत्र कर्म के स्थितिबंधाध्यवसाय असंख्यातगुणे ही होते हैं । इसलिये कोई दोष नहीं है। १. यद्यपि गाथा में गोत्र कर्म का उल्लेख नहीं है। किन्तु नाम कर्म के ग्रहण से ही समान स्थिति होने से गोत्र कर्म का ग्रहण किया है । इसी प्रकार अन्यत्र भी समान स्थिति वाले कर्मों का ग्रहण कर लेना चाहिये ।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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