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________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०३,१०४ २२३ आयुकर्म के अतिरिक्त शेष सात कर्मों में पर्याप्त-अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, सूक्ष्म-बादर एकेन्द्रिय में प्रत्येक के अबाधास्थान और कंडक अल्प हैं किन्तु परस्पर दोनों समान हैं क्योंकि वे आवलिका के असंख्यातवें भाग में रहे हुए समय प्रमाण हैं। उनसे जघन्य अबाधा असंख्यातगुण है। क्योंक वह अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। उससे उत्कृष्ट अबाधा विशेषाधिक है। क्योंकि उसमें जघन्य अबाधा का भी समावेश हो जाता है। उससे दलिकों की निषेक रचना में द्विगुणहानि स्थान असंख्यातगुण हैं। उनसे द्विगुणहानि के एक अंतर के स्थितिस्थान असंख्यातगुण हैं । उनसे अबाधास्थान+कंडकस्थान का कुल योग असंख्यातगुण है। उनसे स्थितिस्थान असंख्यातगुण है। क्योंकि वे एकेन्द्रिय और शेष द्वीन्द्रिय आदि जीवों की अपेक्षा अनुक्रम से पल्योपम के असंख्यातवें तथा पल्योपम के संख्यातवें भाग में रहे हुए समय प्रमाण हैं । उनसे जघन्य स्थितिबंध असंख्यातगुण है । क्योंकि वे एकेन्द्रिय में पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून सागरोपमादि प्रमाण हैं और द्वीन्द्रियादि जीवों में पल्योपम के संख्यातवें भाग न्यून पच्चीस, पचास आदि सागरोपमादि प्रमाण हैं। उनसे उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेषाधिक हैं। इसका कारण यह है कि एकेन्द्रियों के अपने जघन्य स्थितिबंध से पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक और शेष जीवों के पल्योपम के संख्यातवें भाग अधिक है उक्त कथन का दर्शक प्रारूप पृष्ठ २२४ पर देखिये। इस प्रकार अल्पबहुत्व का प्रमाण जानना चाहिये । अब स्थितिबंध के हेतुभूत अध्यवसाय स्थानों का विचार करते हैं। उनके विचार के तीन द्वार हैं १. स्थितिसमुदाहार, २. प्रकृतिसमुदाहार, ३. जीवसमुदाहार। समुदाहार का तात्पर्य है, प्रतिपादन करना । अतएव प्रत्येक स्थितिस्थान में उसके बंध में हेतुभूत अध्यवसायों का जो प्रतिपादन
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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