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________________ २२० पंचसंग्रह : ६ इस प्रकार से संज्ञी जीवों में यह दस और आठ भेद का अल्पबहुत्व कहा है । विशेषार्थ -- इन दो गाथाओं में पर्याप्त अपर्याप्त, संज्ञी असंज्ञी, पंचेन्द्रियों के आयुकर्म संबन्धी आठ प्रकारों के अल्प - बहुत्व का निरूपण किया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय इन दोनों के आयु की जघन्य अबाधा अल्प है । क्योंकि वह क्षुल्लक भव के तीसरे भाग से अत्यन्त छोटे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । उससे क्षुल्लक भव रूप होने से जघन्य स्थितिबंध संख्यातगुण है । उससे अबाधास्थान संख्यातगुण हैं क्योंकि वे जघन्य अबाधारहित पूर्व कोटि के तीसरे भाग प्रमाण हैं । उनसे उत्कृष्ट अबाधा विशेषाधिक है । क्योंकि उसमें जघन्य अबाधा का भी समावेश हो जाने से उत्कृष्ट अबाधा को विशेषाधिक जानना चाहिये । उससे दलिकों की निषेक रचना में द्विगुण हानि के स्थान असंख्यात -. गुणे हैं। क्योंकि वे पत्योपम के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में रहे हुए समय प्रमाण हैं । उनसे द्विगुण हानि के एक अंतर के स्थितिस्थान असंख्यातगुणे हैं। क्योंकि वे पल्योपम के असंख्याते वर्गमूल में रहे हुए समय प्रमाण हैं । उनसे कुल स्थितिबंधस्थान असंख्यात गुणे हैं । उनसे उत्कृष्ट स्थिति विशेषाधिक है । क्योंकि उसमें जघन्यस्थिति और अबाधा का समावेश हो जाता है । इस प्रकार से पर्याप्त संज्ञी - असंज्ञी पंचेन्द्रिय में आयु- कर्म के आठ भेदों का अल्प- बहुत्व है तथा 'सन्निसु' यह पद बहुवचनात्मक होने से आयुकर्म के अल्प - बहुत्व में असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त का भी ग्रहण कर लेना चाहिए ।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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