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________________ बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६५, १६, १७, १८ जघन्य रस अनन्तगुण, उससे समयाधिक जघन्य स्थिति में उत्कृष्ट रस अनन्तगुण, उससे निर्वर्तन कंडक की ऊपर की दूसरी स्थिति में जघन्य रस अनन्तगुण, इस प्रकार कंडक से ऊपर की स्थितियों में जघन्य रस और जघन्य स्थिति से ऊपर की स्थितियों में उत्कृष्ट रस अनुक्रम से अनन्तगुण वहाँ तक कहना चाहिये, यावत् अभव्यप्रायोग्य जघन्यं स्थितिबंध के नीचे का स्थितिस्थान प्राप्त हो । अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध की नीचे की कंडक प्रमाण स्थितियों में उत्कृष्ट रस अनुक्त है, जो आगे कहा जायेगा । २०५ अभव्य प्रायोग्य जघन्य रस के विषयभूत जघन्य स्थिति से नीचे के स्थितिस्थान से अभव्ययोग्य जघन्य रस की विषयभूत पहली स्थिति में — जघन्य स्थिति में जघन्य अनुभाग अनन्तगुण होता है । उससे बाद की दूसरी स्थिति में जघन्य अनुभाग उतना ही होता है, तीसरी स्थिति में जघन्य अनुभाग उतना ही होता है । इस प्रकार वहां तक कहना चाहिये यावत् शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण स्थितियां जायें। जहां तक उच्चगोत्र के साथ परावर्तन भाव सें बंधता है तथा 'वह और अन्य ' इस क्रम से अनुकृष्टि होती है, वहाँ तक पूर्व - पूर्व स्थान में जघन्य रस जितना बंधता है, उतना ही उत्तर-उत्तर स्थान में बंधता है, ऐसा समझना चाहिये । अभव्य प्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध से लेकर दस कोडाकोडी सागरोपम पर्यन्त उच्च नीच गोत्र परावर्तन भाव से बंधते हैं । इसलिये दस कोडाकोडी सागरोपम रूप अन्तिम स्थितिस्थान पर्यन्तं उससे पूर्व - पूर्व के स्थान में जो जघन्य रसबंध होता है, वही उत्तरउत्तर स्थान में होता है, ऐसा कहना चाहिये । ये सभी स्थितिस्थान परावर्तन परिणाम से बंधने वाले होने से उनका पूर्व पुरुषों ने 'परावर्तमान जघन्यानुभागबंधप्रायोग्य' यह नामकरण किया है। इससे ऊपर की पहली स्थिति में जघन्य अनुभाग अनन्तगुण, उससे दूसरी स्थिति में जघन्य अनुभाग अनन्तगुण, तीसरी स्थिति में
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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