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________________ पंचसंग्रह : ६ इस प्रकार से अनुकृष्टि प्ररूपणा करने के पश्चात् अब पूर्व में प्रयुक्त कंडक शब्द और आगे प्रयोग किये जाने वाले निर्वर्तन कंडक शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हैं १९४ कंडक और निर्वर्तन कंडक इन दोनों शब्दों का प्रयोग पल्योपम के असंख्यातवें भाग में वर्तमान समय प्रमाण संख्या के लिये किया जाता है । अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग में रही हुई समय संख्या का अपर नाम कंडक अथवा निर्वर्तन कंडक है । इस प्रकार से अनुकृष्टि सम्बन्धी समस्त वक्तव्यता जानना चाहिये | अब इसी से सम्बन्धित तीव्र - मन्दता का विचार करते हैं । अर्थात् अनुकृष्टि का अनुसरण करके किस स्थान में कितने प्रमाण में तीव्र और मन्द रस बंधता है, उसका कथन करते हैं । उसका सामान्य लक्षण इस प्रकार है कि सभी अशुभ प्रकृतियों में जघन्य स्थिति से प्रारम्भ कर उत्तरोत्तर स्थिति में अनुक्रम से अनन्तगुण रस एवं शुभ प्रकृतियों में उत्कृष्ट स्थिति से आरम्भ कर अनुक्रम से नीचे-नीचे के स्थान में अनन्तगुण रस जानना चाहिये । इस प्रकार से तीव्र - मन्दता के सामान्य स्वरूप का निर्देश करने के पश्चात् अब उसके विशेष स्वरूप का कथन करते हैं । अपरावर्तमान अशुभ शुभ प्रकृतियों की तीव्रमन्दता जा निव्वत्तणकंडं जहन्नठिइपढमठाणगाहितो । गच्छति उवरिहृत्तं अनंत गुणणाए सेढीए ॥२॥ तत्तो पढमठिईए उक्कोसं ठाणगं अनंतगुणं । तत्तो कंडग-उवर आ-उक्कस्सं नए एवं ॥ ६३ ॥ उक्कोसाणं कंडे अनंतगुणणाए तन्नए पच्छा । उवघायमाइयाणं इराक्कोसगाहिंतो ॥६४॥ शब्दार्थ - जा निव्वत्तणकंडे - निर्वर्तन कंडक पर्यन्त, जहन्नठिइपढमठाणगर्हितो -- जघन्य स्थिति के प्रथम स्थान से, गच्छंति - जाता है, उवरिहुतं
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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