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________________ १६० पंचसंग्रह : ६ अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबंध में जो अध्यवसाय हैं, वे सभी दो समयाधिक जघन्य स्थिति बाँधते हुए होते हैं तथा दूसरे नवीन भी होते हैं। इस प्रकार पूर्व-पूर्व स्थान में जो-जो रस रसबंधाध्यवसाय हैं-वे-वे सभी और दूसरे नवीन ऊपर-ऊपर के स्थितिबंध में होते हैं, इस तरह सैकड़ों सागरोपम प्रमाण स्थितिबंध पर्यन्त कहना चाहिये । यानि जितने स्थितिस्थान प्रतिपक्ष 'प्रकृतियों के साथ परावर्तमान परिणाम से बंधते हैं, उतने स्थितिस्थान पर्यन्त कहना चाहिये। __ जैसे कि नीचगोत्र दस कोडाकोडी सागर पर्यन्त उच्चगोत्र के साथ परावर्तमान परिणाम से बंधता है और तिर्यंचद्विक पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम पर्यन्त मनुष्यद्विक के साथ परावर्तमान परिणाम से बंधता है, जिससे वहाँ तक वह और अन्य' इस क्रम से अध्यवसायों की अनुकृष्टि कहना चाहिये । तत्पश्चात् यानि शतपृथक्त्व-अनेक सैकड़ों सागरोपम की चरम स्थिति में जो रसबंध के अध्यवसाय हैं, उनका असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष सभी समयाधिक ऊपर के स्थितिस्थान में जाते हैं तथा दूसरे नवीन भी होते हैं। उस स्थितिस्थान में जो रसबंधाध्यवसाय होते हैं, उनका असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष सभी उससे ऊपर के स्थितिस्थान में होते हैं तथा दूसरे नवीन भी होते हैं। इस प्रकार पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समय प्रमाण स्थितिस्थान पर्यन्त कहना चाहिये। उस स्थितिस्थान में शतपृथक्त्व सागरोपम की चरम स्थिति संबंधी अध्यवसायों की अनुकृष्टि समाप्त होती है। उसके बाद के स्थितिस्थान में समयाधिक शतपृथक्त्व सागरोपम सम्बन्धी अध्यवसायों की अनुकृष्टि समाप्त होती है। इस प्रकार वहाँ तक कहना चाहिये कि उन-उन प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिस्थान प्राप्त हो। इसी प्रकार तिर्यंचानुपूर्वी और नीचगोत्र की भी अनुकृष्टि समझना चाहिये। १ नीचगोत्रादि की अनुकृष्टि का आशय सुगमता से जानने के लिये स्पष्टी करण और प्रारूप परिशिष्ट में देखिये ।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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