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________________ १८८ पंचसंग्रह : ६ क्योंकि इन प्रकृतियों का चारों वर्गों में से किसी भी वर्ग में समावेश नहीं किया गया है तथा उक्त वर्गों की अनुकृष्टि से इन प्रकृतियों की अनुकृष्टि में तारतम्य है। तिर्यंचद्विक और नीचगोत्र की अनुकृष्टि पडिवक्खजहन्नयरो तिरिदुगनीयाण सत्तममहीए। सम्मत्तादीए तओ अणुकड्ढी उभयवग्गेसु ॥१०॥ शब्दार्थ-पडिवक्खजहन्नयरो-प्रतिपक्ष प्रकृतियों से भी जघन्यतर, तिरिदुगनीयाण-तियंचद्विक और नीचगोत्र की, सत्तममहीए-सातवीं नरकपृथ्वी में, सम्मत्तादीए-सम्यक्त्व उत्पन्न होने के पहले समय में, तओ-उससे, अणुकड्ढी-अनुकृष्टि, उभयवग्गेसु-दोनों वर्ग की। गाथार्थ-सातवीं नरकपृथ्वी में सम्यक्त्व उत्पन्न होने के पहले समय में जो जघन्य स्थितिबन्ध होता है, वहाँ से तिर्यंचद्विक और नीचगोत्र की अनुकृष्टि प्रारम्भ करना चाहिये और स्थापना में प्रतिपक्ष प्रकृतियों से भी जघन्यतर स्थितिबन्ध स्थापित करना चाहिये, तत्पश्चात् उभय वर्ग की अनुकृष्टि परावर्तमान शुभाशुभ प्रकृतियों के अनुरूप कहना चाहिये । ' विशेषार्थ—गाथा में तिर्यंचद्विक और नीचगोत्र की अनुकृष्टि की विधि का निर्देश किया है कि अभव्यप्रायोग्य जो जघन्य स्थितिबन्ध होता है, उससे भी तिर्यंचद्विक और नीचगोत्र का अल्प स्थितिबन्ध सातवीं नरकपृथ्वी के नारक को सम्यक्त्व उत्पन्न करते हुए अनिवृत्तिकरण के चरम समय में होता है। सातवीं नरक-पृथ्वी के नारकों को जब तक पहला गुणस्थान होता है, तब तक भव-स्वभाव से तिर्यंचद्विक और नीचगोत्र ही बंधता रहता है, जबकि दूसरे सभी जीव सम्यक्त्व प्राप्त करते हुए शुभ परिणामों से परावर्तमान शुभ प्रकृतियों को ही बाँधते हैं । इसलिए इन तीन प्रकृतियों की अनुकृष्टि की शुरुआत जिस समय उनको सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, उससे पहले के समय में जो जघन्य स्थितिबन्ध होता है वहाँ से आरम्भ कर अभव्य
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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