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________________ १८६ पंचसग्रह : ६ हैं। इस प्रकार से पूर्व-पूर्व स्थान में जिस-जिस स्वरूप वाले रसबंधाध्यवसाय होते हैं, वे ही उत्तरोत्तर स्थान में अनुसरित होते जाते हैं, और दूसरे नवीन भी होते हैं। इस प्रकार वहां तक कहना चाहिये यावत् बहुत से सैकड़ों सागरोपम प्रमाण स्थितिस्थान होते हैं । इसका तात्पर्य यह हुआ कि वे और अन्य इस क्रम से छठे गुणस्थान में बंधती जघन्य स्थिति से लेकर पन्द्रह कोडा-कोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति पर्यन्त कहना चाहिये । क्योंकि उतनी स्थितियां आक्रांत हैं। सातावेदनीय के साथ परावर्तमान परिणाम से बंधती हैं। ___समयाधिक पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम से लेकर सिर्फ अकेली असाता ही बंधती है, इसलिये उसका क्रम उपघातादि के लिये जैसा कहा है, वह है। अन्तःकोडाकोडी से लेकर पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थितिस्थान सर्वजघन्य रसबन्ध के भी योग्य होते हैं। क्योंकि साता के साथ परावर्तमान को प्राप्त करके बँधते हैं। परावर्तमान परिणामी आत्मा मन्द परिणामी होती है जिससे उपयुक्त स्थितियों में वर्तमान आत्मा मन्द रस बांध सकती है । जघन्य रसबंध के योग्य स्थितियों का चरम स्थितिबंध में यानि पन्द्रहवीं कोडाकोडी के चरम समय में रसबन्ध के हेतुभूत जो अध्यवसाय होते हैं, उनका असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष सब ऊपर के समयाधिक पन्द्रह कोडाकोडी सागर प्रमाण स्थितिस्थान बाँधते हुए होते हैं और अन्य नवीन भी होते हैं। समयाधिक पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम स्थिति बाँधते हए जो रसबन्धाध्यवसाय हैं उनका असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष सब दो समयाधिक प्रमाण स्थितिस्थान बांधते हुए होते हैं और दूसरे नवीन भी होते हैं। इस प्रकार पूर्व-पूर्व स्थितिस्थान सम्बन्धी रस बन्धाध्यवसायों का असंख्यातवांअसंख्यातवां भाग छोड़ते-छोड़ते वहाँ तक कहना चाहिये कि कंडकपल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिस्थान जायें। यहाँ जघन्य रसबंध योग्य चरम स्थिति-पन्द्रहवीं कोडाकोडी प्रमाण स्थितिस्थान के रसबन्धाध्यवसाय की अनुकृष्टि समाप्त हुई। इस प्रकार अनुकृष्टि
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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