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________________ पचसंग्रह : ६ हेतुभूत सर्वोत्कृष्ट कषायोदयस्थान से प्रारम्भ कर पूर्व में कहे अनुसार समस्त वर्णन करना चाहिये। विशेषार्थ-जघन्य स्थितिबंध में हेतुभूत असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण कषायोदय में के जघन्य कषायोदय से लेकर सर्वोत्कृष्ट कषायोदय पर्यन्त उत्तरोत्तर कषायोदय में अधिक-अधिक रसबंध के हेतुभूत अध्यवसाय होते हैं, यह जो पूर्व में कहा है, वह ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, असातावेदनीय, मिथ्यात्वमोहनीय, कषायषोडशक, नोकषायनवक, नरकायु, आदि की जातिचतुष्क, समचतुरस्र को छोड़कर शेष पांच संस्थान, प्रथम संहनन को छोड़कर शेष पांच संहनन, अशुभ वर्णादि नवक, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, अप्रशस्त विहायोगति, उपघात, स्थावरदशक, नीचगोत्र और अंतरायपंचक इन सतासी अशुभ प्रकृतियों के लिये समझना चाहिये। इतर-शुभ प्रकृतियों के लिये अर्थात् सातावेदनीय, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, देवायु, देवद्विक, मनुष्यद्विक, पंचेन्द्रियजाति, शरीरपंचक, संघातनपंचक, बंधनपंचदशक, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, अंगोपांगत्रिक, शुभ वर्णादि एकादश, पराघात, अगुरुलघु, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, सदशक, निर्माण, तीर्थंकरनाम और उच्चगोत्र इन उनहत्तर शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध में हेतुभूत जो सर्वोत्कृष्ट कषायोदयस्थान हैं वहाँ से आरम्भ करके पूर्वोक्त प्रकार से समस्त विपरीत समझना चाहिये। वह इस प्रकार-पुण्य प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति में हेतुभूत अंतिम सर्वोत्कृष्ट कषायोदयस्थान में रसबंध के हेतुभूत अध्यवसाय अल्प हैं, उनसे द्विचरम कषायोदयस्थान में अधिक, उनसे त्रिचरमसमय कषायोदयस्थान में अधिक, उनसे चतु:चरम कषायोदयस्थान में अधिक इस प्रकार अधिक-अधिक वहाँ तक कहना चाहिये यावत् सर्वजघन्य स्थितिबंध में हेतुभूत कषायोदयस्थानों में का सर्वजघन्य कषायोदयस्थान प्राप्त होता है।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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