SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ पंचसंग्रह : ६ और वे इस प्रकार कि अन्तिम उत्कृष्ट संख्यातगुण स्थान से उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण मुख्य संख्यातभागवृद्ध स्थानों को अतिक्रमण करने के बाद जो अन्तिम स्थान आता है वह जघन्य असंख्यातगुण होता है और उसके बाद होने वाले सभी अनन्तभागवृद्ध, असंख्यातभागवृद्ध, संख्यातगुणवृद्ध और असंख्यातगुणवृद्ध स्थान असंख्यातगुणे ही होते हैं । इसीलिये संख्यातगुणवृद्ध स्थानों से असंख्यातगुणवृद्ध स्थान असंख्यातगुण हैं। उनसे अनन्तगुणवृद्ध स्थान असंख्यातगुण हैं । क्योंकि पहले अनन्तगुणवृद्ध स्थान से लेकर षट्स्थान की समाप्ति पर्यन्त सभी स्थान अनन्तगुणवृद्ध स्पर्धक वाले ही हैं । इसका कारण यह है कि पहला अनन्तगुणवृद्ध स्थान उसके पूर्व में रहे हुए स्थान की अपेक्षा अनन्तगुणवृद्ध है । यदि वह पहला ही स्थान अनन्तगुणवृद्ध है तो उस अनन्तगुणवृद्ध की ही अपेक्षा से होने वाले अनन्तभागवृद्धादि स्थान अनन्तगुण स्पर्धक वाले ही कहलाते हैं । प्रथम अनन्तगुणवृद्धि से पहले के सभी स्थान प्रत्येक अनन्तगणवद्धि के बीच में होते हैं, अनन्तगणवद्ध स्थान और अन्तर कंडक प्रमाण होते हैं, इसलिये असंख्यातगुणवृद्ध स्थानों से अनन्तगुणवृद्धस्थान असंख्यातगुणा है। __इस प्रकार से अल्पबहुत्व प्ररूपणा करने के साथ रसबंधस्थानों के स्वरूप का कथन पूर्ण हुआ। अब इन अनुभागबंधस्थानों के बंधक बस और स्थावर जीवों की प्ररूपणा करते हैं। अनुभागबंधस्थानों के बंधक जीवों की प्ररूपणा इसकी प्ररूपणा करने के आठ अनुयोग द्वार हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं एगट्ठाणपमाणं अंतरठाणा निरंतरा ठाणा । कालो वुड्ढी जवमज्झ फासणा अप्पबहु दारा ॥६१॥ शब्दार्थ--एगट्ठाणपमाणं-एकस्थानप्रमाण, अंतरठाणा-अंतरस्थान,
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy