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________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५१ १२७ अनन्तगुणवृद्ध होता है, उसमें उससे पूर्व के स्थान के स्पर्धकों को सर्वजीवों से जो अनन्त हैं, उनसे गुणा करने पर जितना प्रमाण आये, उतने स्पर्धक होते हैं । इस प्रकार जहां-जहां अनन्तगुणवृद्ध हो वहांवहां पूर्व-पूर्व के स्थान के स्पर्धकों को सर्वजीव जो अनन्त हैं, उनसे गुणा करने पर जो प्रमाण आये उतने स्पर्धक होते हैं, यह समझना चाहिये। प्रश्न-अनन्तगुणवृद्ध होने पर तो किसी भी रसस्थान को सर्वजीव जो अनन्त हैं, उससे भागित किया जा सकता है, परन्तु जहां तक अनन्तगुणवृद्ध स्थान न हुआ हो, तब तक प्रारम्भ से लेकर असंख्यातगुणवृद्ध तक के किन्हीं भी स्थानों में के स्पर्धकों को सर्वजीव जो अनन्त हैं, उनसे किस प्रकार भागित किया जा सकता है, और जब भागित नहीं किया जा सके तो अनन्तभागवृद्धि किस प्रकार घटित हो सकती है ? उत्तर-जब तक अनन्तगुणवृद्ध स्थान न हुआ हो, वहां तक पूर्व के किन्हीं भी स्थानों के स्पर्धकों की संख्या को सर्वजीव जो अनन्त हैं उनसे भागित नहीं किया जा सकता है, यह ठीक है, परन्तु वहां तक भाग करने वाला अनन्त इतना छोटा लें कि उससे भाग देने पर ज्ञानीदृष्ट स्पर्धकों की अमुक संख्या प्राप्त हो और अनन्तभाग की वृद्धि हो। अनन्तगुणवृद्ध स्थान होने के बाद सर्वजीव जो अनन्त हैं, उनसे भाग देना चाहिये और जो संख्या आये वह अनन्तवां भाग बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार अनुक्रम से भागाकार और गुणाकार रूप वृद्धि के षट्स्थान जानना चाहिये । ये षट्स्थान कितने होते हैं ? अब इस प्रश्न का समाधान करते हैं छट्ठाणगअवसाणे अन्नं छट्ठाणयं पुणो अन्नं । एवमसंखालोगा छट्ठाणाणं मुणेयव्वा ॥५१॥ शब्दार्थ-छट्ठाणगअवसाणे-एक-पहला षट्स्थान पूर्ण होने के बाद,
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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