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बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४६, ५०
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ही स्थान गुणवृद्धि वाले कहलाते हैं । षट्स्थानों में तीन भागवृद्ध स्थान है और तीन गुणवृद्ध स्थान हैं। जिनके नाम इस प्रकार
१. अनन्तभागवृद्ध, २. असंख्यातभागवृद्ध, ३. संख्यातभागवृद्ध, ४. संख्यातगुणवृद्ध, ५. असंख्यातगुणवृद्ध, ६. अनन्तगुणवृद्ध । इन षट्स्थानों की व्याख्या इस प्रकार है ।
१. अनन्तभागवृद्ध---पहले रसस्थान में जितने स्पर्धक हैं, उनको सर्व जीव जो अनन्त हैं, उस अनन्त से भाग देने पर जितने आयें उतने स्पर्धकों से अधिक दूसरा रसस्थान होता है । फिर उसे सर्वजीव जो अनन्त हैं, उससे भाग देने पर जितने स्पर्धक आयें, उतने स्पर्धक से अधिक तीसरा रसस्थान है । इस प्रकार जो-जो स्थान अनन्तभाग अधिक आयें, वे-वे स्थान पूर्व-पूर्व के स्थान के स्पर्धक की संख्या को सर्व जीव जो अनन्त हैं, उस अनन्त से भाग देने पर जितने आयें, उस-उस अनन्तवें भाग से अधिक होते हैं, ऐसा समझना चाहिये।
२. असंख्यातभागवृद्ध-पूर्व-पूर्व के अनुभागबंध स्थान के स्पर्धकों की संख्या को असंख्य लोकाकाश के जितने आकाश प्रदेश हों, उससे भाग देने पर जो प्रमाण आये, वह असंख्यातवां भाग यहां लें। उस असंख्यातवें भाग अधिक स्पर्धक वाले जो स्थान हों वे असंख्यातभागवृद्ध स्थान कहलाते हैं । अर्थात् जो स्थान असंख्यभागवृद्ध स्पर्धक वाला हो, उसमें उससे पूर्व के स्थान में जितने स्पर्धक हों उन्हें असंख्य लोकाकाश प्रदेश राशि द्वारा भाग देने पर जो प्रमाण आये उतने स्पर्धक अधिक होते हैं । इस प्रकार जहां असंख्यभागवृद्ध आये वहाँवहाँ उससे पूर्व-पूर्व के स्थान के स्पर्धकों को असंख्य लोकाकाश प्रदेशों द्वारा भाग देने पर जो प्रमाण आये, उससे अधिक है, ऐसा समझना चाहिये।