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पंचसंग्रह : ६
इस प्रकार अभव्यों से अनन्तगुण और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण स्पर्धक होते हैं, और प्रत्येक स्पर्धक के मध्य में सर्वजीवों से अनन्तगुण रसाणुओं का अन्तर है ।
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इस प्रकार से अन्तर प्ररूपणा का कथन जानना चाहिये। अब क्रमप्राप्त स्थान आदि प्ररूपणात्रय का विचार करते हैं ।
स्थान, कंडक, षट्स्थान प्ररूपणा
एयं पढमं ठाणं एवमसंखेज्ज लोगठाणाणं । समवग्गणाणि फड्डाणि तेसि तुल्लाणि विवराणि ॥ ४६ ॥ ठाणाणं परिवुड्ढी छट्ठाणकमेण तं गयं पुव्वि ।
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भागो गुणो य कीरह जहोत्तरं एत्थ ठाणाणं ॥ ५०॥ शब्दार्थ - एयं - यह, पढमं - - प्रथम - पहला, ठाणं - स्थान, एवं - इसी प्रकार, असंखेज्ज लोगठाणाणं - असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थान, समवग्गणाणि – समान वर्गणा वाले फड्डाणि - स्पर्धक, तेसिं— उनके, तुल्लाणि - तुल्य, बराबर, विवराणि - विवर - अन्तर, ठाणाणं - स्थानों की, परिवुड्ढी वृद्धि, छट्टाणकरेण - षट्स्थान के क्रम से, तं - वह, गयंकहा जा चुका है, पुब्विं - - पूर्व में, भागो - भाग, गुणो — गुणा, य-और, कीरइ — को होती है, जहोत्तरं -- अनुक्रम से, एत्थ - यहां, ठाणाणं - स्थानों में ।
गाथार्थ --- यह पहला स्थान है । इसी प्रकार असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थान होते हैं । वर्गणाओं के बराबर स्पर्धक और अन्तर भी उनके बराबर होते हैं ।
स्थानों में षट्स्थान के क्रम से वृद्धि होती है । वह (स्थान का स्वरूप) पूर्व में कहा जा चुका है । यहां स्थानों में अनुक्रम से भाग और गुण ( वृद्धि होती है ।
विशेषार्थ - स्पर्धक प्ररूपणा के प्रसंग में यह बताया गया है कि अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण स्पर्धक