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________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाया ४४ ११७ अविभाग प्ररूपणा-यह पूर्व में बताया जा चुका है कि योगानुसार जीव प्रतिसमय अनन्तानन्त पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण करता है और उनमें के एक-एक परमाणु में काषायिक अध्यवसायवश अल्पातिअल्प भी सर्वजीवों से अनन्तगुणे गुण परमाणु, भाव परमाणु-रसाणु उत्पन्न करता है । जीव के द्वारा ग्रहण करने से पहले जब तक जीव ने ग्रहण नहीं किये, तब तक कर्मप्रायोग्य वर्गणाओं में के कोई भी परमाणु तथाविध विशिष्ट रस युक्त-आवारक रस युक्त नहीं होते हैं, परन्तु प्रायः नीरस और एक ही स्वरूप वाले होते हैं। यानि ज्ञान का आवरण करना आदि भिन्न-भिन्न स्वरूप वाले नहीं थे जब जीव ग्रहण करता है तब उसी समय काषायिक अध्यवसाय से एक-एक परमाणु में कम-से-कम सर्वजीवों की अपेक्षा भी अनन्तगुण शक्ति संपन्न रसाविभाग एवं ज्ञानावारकत्वादि भिन्न-भिन्न स्वभाव उत्पन्न होते हैं'सव्व जीयाणंतगुणा होंति भावाणु' । जीव और पुद्गल की अचिन्त्य शक्ति होने से यह सब संभव एवं युक्तियुक्त है। यहाँ कर्म वर्गणाओं के परमाणुओं को प्रायः नीरस और एक स्वरूप वाले कहने का आशय यह है कि जब तक जीव ने कर्म वर्गणायें ग्रहण नहीं की तब तक उनमें रस, आवारक शक्ति या ज्ञानावरणादि भिन्न-भिन्न स्वभाव उत्पन्न नहीं होते हैं । यानि रस और प्रकृति नहीं होती है। सभी एक स्वभाव वाले होते हैं । परन्तु पुद्गलों का परस्पर सम्बन्ध होने में हेतुभूत स्नेह तो होता ही है । इसी स्नेह की ओर संकेत करने के लिये प्रायः शब्द दिया है। ___ इसी बात को एक दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं । जैसे शुष्क घास के परमाणु अत्यन्त नीरस एवं एक समान होते हैं लेकिन जब गाय आदि उसको खाती हैं तब वे घास के परमाणु दूध रूप और सप्त धातु रूप परिणाम को प्राप्त करते हैं । उसी प्रकार कर्मयोग्य वर्गणायें प्रायः नीरस और एक सरीखी होती हैं, लेकिन जब जीव ग्रहण करते हैं तब उनमें रस और स्वभाव उत्पन्न होते हैं । जीव में उस प्रकार के काषायिक अध्यवसाय हैं कि वैसे तीव्र या मंद रस एवं भिन्न-भिन्न
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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