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________________ बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४४ ११५ सर्वप्रथम अध्यवसायों की संख्या का निर्देश किया है कि जीव के अध्यवसाय असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं और इनमें शुभअशुभता रूप दोनों प्रकार सम्भव हैं । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कषायोदय से उत्पन्न हुए आत्म-परिणाम को अध्यवसाय कहते हैं। जैसे-जैसे काषायिकबल में वृद्धि होती जाती है, वैसे-वैसे परिणाम क्लिष्ट - क्लिष्ट, अशुभ - अशुभ होते जाते हैं और जैसे-जैसे कषाय का बल घटता जाता है— कम होता जाता है वैसे-वैसे परिणाम शुभ होते जाते हैं | ये शुभ - अशुभ परिणाम रसबंध में हेतुभूत हैं । अशुभ अध्यवसायों से कर्मपुद्गलों में नीम, घोषातिकी आदि की उपमा वाला कटुक अशुभ फल दे वैसा रस उत्पन्न होता है और शुभ अध्यवसायों से क्षीर, खांड आदि की उपमा वाला मिष्ट शुभ फल दे वैसा रस उत्पन्न होता है । जघन्य कषायोदय से लेकर उत्कृष्ट कषायोदय पर्यन्त कषायोदय के असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थान होते हैं । अतएव उनके निमित्त से होने वाले शुभाशुभ अध्यवसाय भी असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं । उनमें भी शुभ अध्यवसाय कुछ अधिक हैं । उन शुभ अध्यवसायों की कुछ अधिकता का कारण यह है कि उपशमश्रेणि में दसवें गुणस्थान के चरम समय में जिन अध्यवसायों से पुण्य प्रकृतियों का स्वभूमिकानुरूप उत्कृष्ट और पाप प्रकृतियों का जघन्य रस बंधता है, उन अध्यवसायों से लेकर पहले गुणस्थान में जिन अध्यवसायों से पाप प्रकृतियों का उत्कृष्ट और पुण्य प्रकृतियों का जघन्य रस बंधता है, उन उत्कृष्ट अध्यवसाय तक के प्रत्येक अध्यवसायों को क्रमपूर्वक स्थापित करें और दसवें गुणस्थान से क्रमपूर्वक पतन करके जीव पहले गुणस्थान पर्यन्त आते हुए क्रमशः स्थापित किये हुए समस्त अध्यवसायों का जैसा स्पर्श करता है उसी प्रकार पहले गुणस्थान से आरोहण कर दसवें गुणस्थान पर्यन्त जाते हुए भी समस्त अध्यवसायों का स्पर्श करता है । अध्यवसाय वही हैं परन्तु जब जीव गिरता है तब कषायों का बल बढ़ता हुआ होने से संक्लिष्ट परिणामी कह
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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