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________________ ११० पंचसंग्रह : ६ रसभेद से मोहनीय, आवरणद्विक का प्रदेश विभाग सव्वुक्कोसरसो जो मूलविभागस्सणंतिमो भागो। सव्वघाईण दिज्जइ सो इयरो देसघाईणं ॥४२॥ शब्दार्थ-सबुक्कोसरसो--सर्वोत्कृष्ट रस, जो-जो, मूलविभागस्सणंतिमो-मूल विभाग का अनन्तवां, भागो-भाग, सव्वघाईण-सर्वघाति प्रकृतियों को, दिज्जइ–दिया जाता है, सो-वह, इयरो-इतर, देसघाईणंदेशघाति प्रकृतियों को। गाथार्थ-सर्वोत्कृष्ट रस वाले मूल विभाग का अनन्तवां भाग सर्वघाति प्रकृतियों को और इतर भाग देशघाति प्रकृतियों को दिया जाता है। विशेषार्थ-घाति प्रकृतियां दो प्रकार की हैं-सर्वघातिनी और देशघातिनी और यह पहले बताया जा चुका है कि प्रत्येक प्रकृति को उस-उसकी स्थिति के अनुसार दलिक भाग प्राप्त होता है। अर्थात् कम स्थिति वाले को कम और अधिक स्थिति वाले को अधिक भाग मिलता है । अतएव स्थिति के अनुसार ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय कर्म के भाग में जो दलिक आते हैं, उनका सर्वोत्कृष्ट रस वाला अनन्तवां भाग तत्काल बंधने वाली सर्वघाति प्रकृतियों में विभाजित हो जाता है। यानि विवक्षित समय में बंधने वाली सर्वघाति प्रकृति के रूप में यथायोग्य रीति से परिणत होता है तथा इतरअनुत्कृष्ट रस वाला शेष रहा दल विभाग वह देशघातिनी कर्म प्रकृतियों में यथायोग्य रीति से विभाजित हो जाता है। अर्थात् बंधने वाली प्रकृति रूप में पूर्व में कहे गये अल्पबहुत्व के प्रमाण में परिणमित होता है-उस रूप होता है। विशेषता के साथ जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- स्थिति के अनुसार ज्ञानावरण को जो मूल भाग प्राप्त होता है उसका सर्वोत्कृष्ट रस वाला अनन्तवां भाग सर्वघाती केवलज्ञानावरण रूप में परिणमित होता है और शेष दलिक के चार भाग होकर यथायोग्य रीति से मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और मनपर्यायज्ञानावरण में विभाजित हो जाता है।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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