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________________ १०० पचसंग्रह : ६ परिणाम को प्राप्त हुई वर्गणाओं का फल क्रमपूर्वक अनुभव किया जाता है, अतएव उसकी जो स्थापना-रचना होती है, उसे निषेकरचना कहते हैं। विवक्षित समय में परिणामानुसार जितनी स्थिति का बंध हुआ हो उसके प्रमाण में अबाधाकाल को छोड़कर निषेक रचना होती है और उस रचना के अनुसार जीव फल का अनुभव करता है। इस प्रकार के कर्मवर्गणाओं के काल प्रमाण को स्थितिबंध कहते हैं। हीनाधिक प्रमाण में आत्मा के गुणों को आच्छादित कर सके एवं अल्पाधिक प्रमाण में सुख-दुःखादि दे सके ऐसे परिणमन का अनुसरण करके कर्मपरमाणुओं में जो शक्ति उत्पन्न होती है वह रसबंध-अनुभामबंध कहलाता है-'ताण रसो अणुभागो।' तथा___ 'तस्समुदाओ पगइबंधो' अर्थात् उन तीनों का समुदाय प्रकृतिबंध है। यानि पूर्वोक्त प्रदेश, स्थिति और रस का समुदाय प्रकृतिबंध है। जैसे हाथ-पैर आदि अवयवों के समूह को शरीर कहा जाता है और शरीर एवं उन अवयवों का अवयव-अवयवी सम्बन्ध है, वैसे ही स्थिति, रस और प्रदेश के समूह को प्रकृतिबंध कहते हैं। प्रकृतिबंध और स्थिति आदि के समूह का अवयव-अवयवीभाव सम्बन्ध है। प्रकृतिबंध अवयवी है और स्थिति आदि उसके अवयव हैं। प्रकृतिबंध का पूर्वोक्त लक्षण कषाय के निमित्त से दसवें गुणस्थान तक जो कर्मबंध होता है, उसकी अपेक्षा जानना चाहिये । क्योंकि उसमें कषाय के निमित्त से स्थिति और रस उत्पन्न हुआ होता है, परन्तु ग्यारहवें से लेकर तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त योग के निमित्त से बंधने वाले कर्म की अपेक्षा यह लक्षण नहीं समझना चाहिये । क्योंकि उसमें कषाय का अभाव होने से स्थिति और रस नहीं होता है। इसलिये कषाय के योग से बंधने वाले कर्म की अपेक्षा यह लक्षण है। प्रकारान्तर से अब इसका दूसरा स्पष्टीकरण करते हैं केवल योग के निमित्त से बंधने वाले कर्म की भी दो समय की स्थिति है
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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