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________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३६ रस, परिवड्ढेइ---वृद्धिंगत, जीवे-जीव में, पओगफड्डं-प्रयोगप्रत्यय स्पर्धक, तयं-उसको, बॅति- कहते हैं। - गाथार्थ प्रयोग यानि योग, उस स्थान की वृद्धि द्वारा जो रस स्पर्धक रूप से वृद्धिंगत होता है, उसे प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक कहते हैं। विशेषार्थ-प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक की प्ररूपणा प्रारम्भ करने के पूर्व गाथा में प्रयोग प्रत्ययस्पर्धक का स्वरूप स्पष्ट किया है कि होई पओगो जोगो यानि यहाँ प्रयोग शब्द से योगस्थान ग्रहण करना चाहिये । उसकी वृद्धि द्वारा केवल योग के निमित्त से बंधे हुए कर्मपरमाणुओं में जो रस स्नेहस्पर्धक के रूप में वृद्धिंगत होता है, स्पर्धक रूप परिणाम को प्राप्त होता है, वह प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक कहलाता है और उसकी प्ररूपणा करने को प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा कहते हैं । ग्रंथकार आचार्य ने अपनी स्वोपज्ञटीका में इसी आशय को विशेषता के साथ स्पष्ट किया है-प्रकृष्टो वा योगो व्यापारः तद्ध तु गृहीत पुद्गल स्नेहस्य प्ररूपणा प्रयोगस्पर्धकप्ररूपणे ति-प्रकृष्ट योग व्यापार के निमित्त से ग्रहण किये गये पुद्गलों के स्नेह की प्ररूपणा को प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा कहते हैं ।। ग्रंथकार आचार्य ने गाथा में स्नेह का बोध कराने के लिये रस शब्द का प्रयोग किया है। अतएव उससे यह अनुमान किया जा सकता है कि स्नेह और कर्मगत वह शक्तिविशेष जो ज्ञानादि को अल्पाधिक प्रमाण में आच्छादित करती है अथवा सुख-दुःखादि का १. कर्म प्रकृति टीका में उपाध्याय यशोविजय जी के प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक की व्याख्या इस प्रकार की है-तत्र प्रयोगो योगः प्रकृष्टो योग इति व्युत्पत्तेः तत्स्थानवृद्ध या यो रसः कर्मपरमाणुषु केवलयोगप्रत्ययतो बध्यमानेषु परिवर्धते स्पर्धकरूपतया प्रत्प्रयोगप्रत्ययम् स्पर्धकम् ।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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