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________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३५ औदारिक-कार्मण बंधनयोग्य पुद्गल अनन्त गुणे हैं, और उससे औदारिक-तैजस-कार्मणबंधन योग्य पुद्गल अनन्त गुणे हैं । २. वैक्रिय-वैक्रिय बंधनयोग्य पुद्गल अल्प हैं, उससे वैक्रियतैजस बंधन योग्य पुद्गल अनन्तगुणे हैं । उससे वैक्रिय-कार्मण बंधन योग्य पुद्गल अनन्त गुणे हैं और उससे वैक्रिय-तैजस-कार्मण बंधनयोग्य पुद्गल अनन्त गुणे हैं। ३. आहारक-आहारक बंधनयोग्य पुद्गल अल्प हैं । उसकी अपेक्षा आहारक-तैजस बंधन योग्य पुद्गल अनन्तगुणे हैं। उससे आहारक-कार्मण बंधनयोग्य पुद्गल अनन्तगुणे हैं और उससे आहारक-तैजस-कार्मणबंधन योग्य पुद्गल अनन्तगुणे हैं। ___४. उससे तैजस-तैजस बंधन योग्य पुद्गल अनन्त गुणे हैं। उससे तैजस-कार्मणबंधन योग्य पुद्गल अनन्तगुणे हैं। और उससे कार्मणकार्मण बंधन योग्य पुद्गल अनन्तगुणे हैं। बंधननामकर्म के अधिकतम पन्द्रह भेद होते हैं, उन्हीं की अपेक्षा यहाँ अल्पबहुत्व का कथन किया है। जिसका आशय यह है कि, औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों से बंधने वाले अपने-अपने नाम वाले बंधन योग्य पुद्गल परमाणु अल्प होते हैं, उससे तैजस, कार्मण और तैजस-कार्मण बंधन योग्य परमाणु क्रमशः अनन्तगुणे अनन्तगुणे हैं, और तैजस-तैजस, तेजस-कार्मण तथा कार्मण-कार्मणबंधन योग्य परमाणु अनन्तगुण अनन्तगुण ही होते हैं । सामान्य से तो इन तैजस आदि बंधनों में अल्पबहत्व नहीं माना जा सकता है, लेकिन विशेषापेक्षा मान भी लिया जाये तो अनन्त के अनन्त भेद होने से अनन्तगुणता में कोई अन्तर नहीं आयेगा अनन्तगुण ही कहलायेगा। . सुगमता से समझने के लिए उक्त कथन का दर्शक प्रारूप इस प्रकार है
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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