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________________ ८ पंचसंग्रह : ६ उक्त कथन का आशय यह हुआ कि पहली बार संख्यात वृद्धि वाला स्थान होने के पश्चात् पहले अनन्त भागवृद्ध और उसके बाद के असंख्यातभागवृद्ध स्थान कंडक प्रमाण जिस रीति से पूर्व में बताये हैं, उसी प्रमाण करने से दूसरा संख्यातभाग वृद्ध स्थान होता है। फिर पुनः अनन्त और असंख्यातभागवृद्धि के सभी स्थान होने के पश्चात् तीसरा संख्यात भाग वृद्ध स्थान होता है। इस प्रकार करने से संख्यातभागवृद्ध स्थान भी कंडक प्रमाण होते हैं। ____ अन्तिम संख्यातभागवृद्ध स्थान होने के पश्चात् अनन्त और असंख्यात भाग वृद्धि के समस्त स्थान करने के बाद संख्यातगुणवृद्ध स्थान प्रारम्भ होता है । यानि अनन्तर पूर्व के स्थान में जितने स्पर्धक होते हैं, उससे संख्यातगुण स्पर्धक संख्यातगुणवृद्धि के पहले स्थान में होते हैं उसके बाद शुरू से लेकर यहाँ तक जितने स्थान पूर्व में कहे जा चुके हैं उतने स्थान उसी प्रकार कहना चाहिये । उसके बाद दूसरा संख्यातगुणाधिक स्पर्धक वाला स्थान कहना चाहिये। उसके पश्चात पहले और दूसरे संख्यातगुण स्थान के बीच जो स्थान कहे हैं, वे सभी स्थान उसी प्रकार कहना चाहिये। तत्पश्चात् तीसरा संख्यातगुणाधिक स्थान होता है । इस प्रकार यह संख्यातगुणाधिक स्थान भी वहाँ तक कहना चाहिये यावत् उसका कंडक पूर्ण हो । अन्तिम संख्यातगुणधिक स्थान कहने के पश्चात् मूल से प्रारम्भ कर पहले संख्यातगुणवृद्ध पर्यन्त जितने स्थान जिस क्रम से कहे हैं, उतने उसी प्रमाण कहना चाहिये। तत्पश्चात् असंख्यातगुण अधिक स्पर्धक वाला पहला स्थान होता है । तत्पश्चात् शुरू से लगाकर यहाँ तक जितने शरीरस्थान जिस रीति से पूर्व में कहे हैं, उतने उसी प्रकार से कहकर दूसरा असंख्यातगुणाधिक स्थान होता है । फिर उतने ही स्थान कहने के पश्चात् तीसरा असंख्यातगुणवृद्ध स्थान होता है । इस प्रकार से असंख्यातगुणवृद्ध स्थान भी कंडक प्रमाण होते हैं।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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