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________________ पंचसंग्रह : ६ इस प्रकार से परंपरोपनिधा का आशय जानना चाहिये । स्नेहप्रत्ययस्पर्धक की उक्त परंपरोपनिधाप्ररूपणा के आशय का सारांश इस प्रकार जानना चाहिये ७२ पूर्व वर्गणा की अपेक्षा बीच की कुछ वर्गणाओं को छोड़कर आगे की वर्गणा में परमाणुओं की हीनाधिकता के विचार करने को परंपरोपनिधा कहते हैं । इसको इस प्रकार समझना चाहिये असंख्यात भागहानि — विभाग में असंख्यात लोकाकाश प्रदेशों का अतिक्रमण होने पर द्विगुणहानि, संख्यात भागहानिविभाग में असंख्यात लोकाकाश प्रदेशों का अतिक्रमण होने पर द्विगुणहानि होती है । किन्तु संख्यातगुणहीन, असंख्यातगुणहीन और अनन्तगुणहीन इन तीन विभागों में पहले से ही त्रिगुणादि हीनता होने से द्विगुणहानि का अभाव है । अतएव पूर्वोक्त द्विगुण हानि रूप परंपरोपनिधा सर्व विभागों में संभव न हो सकने से दूसरे प्रकार से परंपरोपनिधा प्ररूपणा इस प्रकार की जाती है कि असंख्यातभांगहानि विभाग में प्रथम वर्गणा की अपेक्षा कुछ वर्गणायें - १. असंख्यात भागहीन, २ संख्यात भागहीन, ३ संख्यातगुणहीन, ४. असंख्यातगुणहीन और, ५. अनन्तगुणहीन हैं । इस प्रकार पाँचों हानि वाली होती हैं । संख्यात भागहानि में प्रथम वर्गणा की अपेक्षा आगे की कितनी ही वर्गणायें पूर्व की असंख्यात भागहानि के सिवाय उत्तर की अपने नाम सहित शेष चार हानि वाली जानना चाहिये । संख्यातगुणहानि में प्रथम वर्गणा की अपेक्षा आगे की कितनी ही वर्गणायें पूर्व की असंख्यात भागहानि और संख्यात भागहानि इन दो हानियों को छोड़कर उत्तर की अपने नाम सहित तीन हानि वाली हैं । असंख्यातगुणहानि में प्रथम वर्गणा की अपेक्षा आगे की कितनी ही वर्गणायें पूर्व की असंख्यात भागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यात
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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