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________________ ( ७ ) पड़ी। इसी बीच गुरुदेवश्री मानमलजी म. का वि. सं. १९७४, माघ वदी ७ को जोधपुर में स्वर्गवास हो गया। वि. सं० १९७५ अक्षय तृतीया को पूज्य स्वामी श्री बुधमलजी महाराज के कर-कमलों से आपने दीक्षारत्न प्राप्न किया। आपकी बुद्धि बड़ी विचक्षण थी। प्रतिभा और स्मरणशक्ति अद्भुत थी। छोटी उम्र में हो आगम, थोकड़े, संस्कृत, प्राकृत, गणित, ज्योतिष काव्य, छन्द, अलंकार, व्याकरण आदि विविध विषयों का अधिकारिक ज्ञान प्राप्त कर लिया। प्रवचनशैली की ओजस्विता और प्रभावकता देखकर लोग आपश्री के प्रति आकृष्ट होते गये और यों सहज हो,आपका वर्चस्व, तेजस्व बढ़ता गया। ____ वि. सं० १९८५ पौष बदि प्रतिपदा को गुरुदेव श्री बुधमलजो म. का स्वर्गवास हो गया । अब तो पूज्य रघुनाथजी महाराज को सप्रदाय का समस्त दायित्व आपश्री के कंधों पर आ गिरा। किन्तु आपश्री तो सर्वथा सुयोग्य थे। गुरु से प्राप्त संप्रदाय-परम्परा को सदा विकासोन्मुख और प्रभावनापूर्ण ही बनाते रहे। इस दृष्टि से स्थानांगसूत्रवर्णित चार शिष्यों (पुत्रों) में आपको अभिजात (श्रेष्ठतम) शिष्य हो कहा जायेगा, जो प्राप्त ऋद्धि-वंभव को दिन दूना रात चागुना बढ़ाता रहता है। वि.स. १९९३, लोकाशाह जयन्ती के अवसर पर आपश्री को मरुधरकेसरी पद से विभूषित किया गया । वास्तव में ही आपको निर्भीकता और क्रान्तिकारो सिंह गर्जनाएँ इस पद को शोभा के अनुरूप हो थीं। _ स्थानकवासी जैन समाज को एकता और संगठन के लिए आपश्रो के भगीरथ प्रयास श्रमणसंघ के इतिहास में सदा अमर रहेंगे। समयसमय पर टूटती कड़ियाँ जोड़ना, संघ पर आये संकटों का दूरदर्शिता के साथ निवारण करना, संत-सीतयो की आन्तरिक व्यवस्था को सुधारना, भीतर में उठतो मतभेद की कटुता को दूर करना—यह आपश्री की ही क्षमता का नमूना है कि बृहत श्रमणसंघ का निर्माण हुआ, बिखरे घटक एक हो गये।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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