SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८ पंचसंग्रह : ४ में वैक्रियमिश्र और कार्मण यह दो योग नहीं होते हैं। क्योंकि वैक्रियमिश्रकाययोगी और कार्मणकाययोगी स्त्रीवेदी में अविरतसम्यग्दृष्टि कोई भी जीव उत्पन्न नहीं होता है। चतुर्थ गुणस्थान को लेकर जाने वाला जीव पुरुष होता है, स्त्री नहीं होता है । जैसाकि सप्ततिकाचूणि में वैक्रियमिश्रकाययोगी और कार्मणकाययोगी अविरतसम्यग्दृष्टि सम्बन्धी वेद में भंगों का विचार करते हुए कहा है कि 'इत्थ इस्थिवेदो ण लब्भइ, कहं ? इथिवेयगेसु न उत्वज्जइ ति काउमिति ।' ___अर्थात् इन दो योगों में चौथे गुणस्थान में स्त्रीवेद नहीं होता है। क्योंकि वे स्त्रीवेदियों में उत्पन्न नहीं होते हैं। यानी इन दो योगों में वर्तमान स्त्रीवेद के उदयवाले जीवों के चतुर्थ गुणस्थान नहीं होता है। लेकिन यह कथन अनेक जीवों की अपेक्षा सामान्य से समझना चाहिए। अन्यथा किसी समय स्त्रीवेदी में भी उनकी उत्पत्ति सम्भव है । जैसाकि सप्ततिकाचूर्णि में बताया है कि ____ 'कयाइ होज्ज इत्यिवेयगेसु वि त्ति ।' कदाचित् स्त्रीवेदी में भी चौथे गुणस्थान में यह दो योग घटित होते हैं। इसके अतिरिक्त स्त्रीवेद और नपुसकवेद का उदय रहने पर औदारिकमिश्र योग नहीं होता है-'ओरालियमीसगो जन्नो' । इसका कारण यह है कि स्त्रीवेद और नपुसकवेद के उदयवाले तिर्यंच और मनुष्यों में अविरतसम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते हैं। लेकिन यह कथन भी अनेक जीवों की अपेक्षा समझना चाहिए। यानी कदाचित् किसी जीव में यह घटित नहीं भी होता है। लेकिन इससे कुछ दोष प्राप्त नहीं होता है। क्योंकि स्त्रीवेद के उदयवाले मल्लि तीर्थंकर, ब्राह्मी, सुन्दरी आदि चौथा गुणस्थान लेकर मनुष्यगति में उत्पन्न हुए हैं और उनको विग्रहगति में कार्मणकाययोग एव अपर्याप्त अवस्था में औदारिकमिश्रकाययोग संभव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy