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________________ २६ बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाथा 8 हैं । ग्यारह आदि बन्धहेतुओं में भी मिथ्यात्व आदि के भेदों को बदलकर गुणा करने की भी यही रीति है। अतः अब ग्यारह आदि बंधहेतुओं के भंगों का प्रतिपादन करते हैं । ग्यारह आदि बधहेतुओं के भंग ये ग्यारह आदि हेतु अनन्तानुबंधी कषाय, भय और जुगुप्सा को बदल-बदल कर लेने और काय के वध की वद्धि करने से होते हैं। जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है १. पूर्वोक्त दस बंधहेतुओं में भय को मिलाने पर ग्यारह हेतु होते हैं। उनके भंग पूर्व में कहे गये अनुसार छत्तीस हजार होते हैं । २. अथवा जुगप्सा का प्रक्षेप करने पर ग्यारह होते हैं। यहाँ भी भंग छत्तीस हजार होते हैं । ३. अथवा अनन्तानुबंधी क्रोधादि चार में से किसी एक को मिलाने पर ग्यारह हेतु होते हैं । लेकिन अनन्तानुबंधी का उदय होने पर योग तेरह होते हैं। क्योंकि मिथ्यादृष्टि के अनन्तानुबंधी का उदय होने पर मरण संभव होने से अपर्याप्त अवस्थाभावी कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये तीन योग संभव हैं । अतः कषाय के साथ गुणा करने पर पूर्व में जो छत्तीस सौ भंग प्राप्त हुए थे, उनको दस के बदले तेरह योगों से गणा करने पर (३६०० X १३ = ४६८००) छियालीस हजार आठ सौ भंग होते हैं। १. भय अथवा जुगुप्सा को मिलाने पर ग्यारह बंधहेतु तथा भय-जुगुप्सा को युगपत् मिलाने पर बारह हेतु के भंग छत्तीस हजार ही होंगे, अधिक नहीं । क्योंकि भय और जुगुप्सा परस्पर विरोधी नहीं हैं, जिससे एक-एक के साथ गुणा करने पर भी छत्तीस हजार ही भंग होते हैं । युगलद्विक की तरह यदि परस्पर विरोधी हों, यानि एक जीव को भय और दूसरे जीव को जुगुप्सा हो तो दोनों से गुणा करने पर पदभंग बढ़ेंगे । परन्तु भय और जुगप्सा दोनों का एक समय में एक जीव के उदय हो सकता है, जिससे उनकी भंगसंख्या में वृद्धि नहीं होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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