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पंचसंग्रह
तीसरे, चौथे, पांचवें समय में कार्मणकाययोग और शेष काल में औदारिककाययोग होता है । सत्य और असत्यामृषा वचनयोग प्रवचन के समय और दोनों मनोयोग अनुत्तरविमानवासी आदि देवों और अन्य क्षेत्र में विद्यमान मुनियों द्वारा मन से पूछे गये प्रश्न का उत्तर देते समय होते हैं ।
अयोगिकेवली भगवान शरीर में रहने पर भी सर्वथा मनोयोग, वचनयोग और काययोग का रोध करने वाले होने से उनके एक भी बंधहेतु नहीं होता है ।
इस प्रकार अनेक जीवापेक्षा गुणस्थानों में संभव मिथ्यात्व आदि बंधहेतुओं के पचपन आदि अवान्तर भेद जानना चाहिये ।' अब एक जीव के एक समय में जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट से गुणस्थानों में संभव बंधहेतुओं को बतलाते हैं ।
एक जीव एवं समयापेक्षा गुणस्थानों में बन्धहेतु
दस दस नव नव अड पंच जइतिगे दु दुग सेसयाणेगो । अड सत्त सत्त सत्तग छ दो दो दो इगि जुया वा ||६||
- आठ,
शब्दार्थ - दस दस- - दस, दस, नव नव-नौ, नो, अड - आठ, पंचपांच, जइति यतित्रिक में, (प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण गुणस्थान में), दुदुग – दो, दो सेसघाणेगो - शेष गुणस्थानों में एक, अड-सत्त सत्त सत्तग - सात, सात, सात, छ- छह, दो दो दो-दो, दो, दो, इगि - एक, जुया -- साथ, वा विवक्षा से ।
With the
गाथार्थ - एक समय में एक जीव के कम से कम मिथ्यात्व आदि तेरहवें गुणस्थानपर्यन्त क्रमशः दस, दस, नो, नो, आठ, यतित्रिक में पांच पांच, पांच, दो में दो, दो और शेष गुणस्थानों में
१.
दिगम्बर कर्मसाहित्य में यहाँ बताई गई अवान्तर बंधप्रत्ययों की संख्या से किन्हीं गुणस्थानों की संख्या में समानता एवं भिन्नता भी है। अतएव तुलना की दृष्टि से दिगम्बर कर्मसाहित्य में किये गये उत्तर बंधप्रत्ययों के वर्णन को परिशिष्ट में देखिये ।
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