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बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार, गाथा ४
१३ हतु के विद्यमान न होने से किसी भी प्रकार का कर्मबन्ध नहीं करते हैं। __ इस प्रकार से गणस्थानों में मिथ्यात्व आदि मूल बंधहेतुओं को जानना चाहिए । सरलता से समझने के लिए इनका प्रारूप इस प्रकार है
क्रम गुणस्थान
बंधहेतु १ मिथ्यात्व
मिथ्यात्व, अविरति,
कषाय, योग २,३,४ सामादन, मिश्र, अविरतसम्य. अविरति, कषाय, योग ३ ५ । देशविरत
अविरति, कपाय, योग ३ (यहाँ अदिरति प्रत्यय कुछ
न्यून है।) ६-१० । प्रमत्तसंयत आदि सूक्ष्मसंपराय कषाय, योग ११-१३ उपशांतमोह आदि सयोगिकेवली योग १४ । अयोगिकेवली
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१ इसी प्रकार से दिगम्बर कर्मग्रन्थों (दि. पंचस ग्रह, शतक अधिकार गाथा
७८, ७६ और गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ७८७, ७८८) में भी गुणस्थानों की अपेक्षा सामान्य बन्धहेतुओं का निर्देश किया है। पांचवें देशविरतगुणस्थान के बन्धहेतुओं के लिए संकेत किया है किमिस्सगविदियं उवरिमदुगं च देसेक्कदेसम्मि ॥
--गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ७८७ अर्थात् एकदेश असंयम के त्याग वाले देशसंयमगुणस्थान में दूसरा अविरति प्रत्यय विरति से मिला हुआ है तथा आगे के दो प्रत्यय पूर्ण हैं । इस प्रकार इस गुणस्थान में दूसरा अविरति प्रत्यय मिश्र और उपरिम दो प्रत्यय कर्मबन्ध के कारण हैं। इस तरह पांचवें गुणस्थान के तीनों बंधहेतुओं के बारे में जानना चाहिये।
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