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४ : बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार
बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार का कथन करके अब क्रम-प्राप्त बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम सामान्य बंधहेतुओं को बतलाते हैं। जिनके नाम और उत्तरभेद इस प्रकार हैं---
बंधस्स मिच्छ अविरइ कसाय जोगा य हेयवो भणिया।
ते पंच दुवालस पन्नवीस पन्नरस भेइल्ला ॥१॥ शब्दार्थ-बंधस्स-बंध के, मिच्छ-मिथ्यात्व, अविरइ-अविरति, कमाय-कषाय, जोगायोग, य-और, हेयवो-हेतु, भणिया-कहे हैं (बताये हैं), ते-वे, पंच-पांच, दुवालस-बारह, पन्नवीस-पच्चीस, पन्नरस--पन्द्रह, भेइल्ला--भेद वाले।
गाथार्थ-कर्मबंध के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, ये चार हेतु बताये हैं और वे अनुक्रम से पांच, बारह, पच्चीस और पन्द्रह भेद वाले हैं।
विशेषार्थ---गाथा के पूर्वार्ध में कर्मबंध के सामान्य बंधहेतुओं का निर्देश करके उत्तरार्ध में उनके यथाक्रम से अवान्तर भेदों की संख्या बतलाई है। जिसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है__ आत्मा और कर्म-प्रदेशों का पानी और दूध अथवा अग्नि और लोहपिंड की तरह एकक्षेत्रावगाह हो जाना बंध है। जीव और कर्म का सम्बन्ध कनकोपल (स्वर्ण-पाषाण) में सोने और पाषाण रूप मल के संयोग की तरह अनादि काल से चला आ रहा है । संसारी जीव का वैभाविक स्वभाव-परिणाम रागादि रूप से परिणत होने का है और बद्ध कर्म का स्वभाव जीव को रागादि रूप से परिणमाने का है। जीव और कर्म का यह स्वभाव अनादि काल से चला आ रहा है । इस प्रकार के वैभाविक परिणामों और कर्मपुद्गलों में कार्य-कारण भाव सम्बन्ध है।
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