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________________ परिशिष्ट : २ दिगम्बर कर्मसाहित्य में गुणस्थानापेक्षा मूल बंधप्रत्यय सामान्य से कर्मबंध के कारणों का विचार सभी कर्मसिद्धान्तवादियों ने किया है । जैन कर्मसिद्धान्त में इन कारणों का संक्षेप और विस्तार की दृष्टि से विविध रूपों में विवेचन किया है । इसके तीन प्रकार देखने में आते हैं (क) १ मिथ्यात्व, २ अविरति, ३ प्रमाद, ४ कषाय, ५ योग, (ख) १ मिथ्यात्व, २ अविरति, ३ कषाय, ४ योग, (ग) १ कषाय, २ योग।। उक्त तीन प्रकारों में से कार्गग्रन्थिक आचार्यों ने 'ख' विभाग के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और वोग इन चार को बंधहेतुओं के रूप में माना है और मूल तथा मूल के अवान्तर भेदों की अपेक्षा गुणस्थानों और मार्गणास्थानों में बंधहेतुओं और उनके भंगों की व्याख्या की है। सामान्यतया श्वेताम्बर और दिगम्बर कर्मग्रन्थों में बंधहेतुओं और उनके भंगों में विशेष भिन्नता नहीं हैं और यदि कुछ है भी तो विवेचन करने के दृष्टिकोण की अपेक्षा से समझना चाहिए । प्रस्तुत ग्रन्थ पंचसंग्रह में जिस प्रकार से गुणस्थानों में बंधप्रत्ययों का विचार किया है, उनका तुलनात्मक अध्ययन करने के लिये दिगम्बर कर्मसाहित्य में किये गये बंधप्रत्ययों के विवेचन व भंगों को यहाँ उपस्थित करते हैं । संक्षेप में उक्त वर्णन इस प्रकार है मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार कर्मबंध के मूल कारण हैं। इनके उत्तरभेद क्रम से पांच, बारह, पच्चीस और पन्द्रह हैं। कुल मिलाकर ये सत्तावन कर्म-बंधप्रत्यय होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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