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________________ बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २२-२३ ११६ उदय होने पर उत्पन्न होते हैं, अन्तरायकर्म का उदय होने से अलाभ से उत्पन्न परीषह होते हैं । छद्मस्थ जीवों में ये चौदह परीषह पाये जाते हैं। निषद्या, याचना, आक्रोश, अरति, स्त्री, नग्नता, सत्कार और दर्शन ये आठ परीषह मोहकर्म के उदय से होते हैं। सरागी जीवों में ये सभी बाईसों ही परीषह पाये जाते हैं। विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में सभी परीषहों की उत्पत्ति का कारण एवं उन-उनके स्वामियों का निर्देश किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है 'वेयणीयभवा एए' अर्था । पूर्वोक्त क्षुधा, पिपासा आदि ग्यारह परीषह वेदनीयकर्म से उत्पन्न होते हैं ।। उक्त ग्यारह परीषह इतने सामान्य हैं कि सभी संसारी जीवों में, यहाँ तक कि जो केवली भगवान इस संसार में शरीर आदि योग सहित विद्यमान हैं, उनमें भी ये सम्भव हैं। इसी कारण ये ग्यारह परीषह सयोगिकेवलीगुणस्थान तक माने जाते हैं। ___'पन्नानाणा उ आइमे'---ज्ञानावरणकर्म का उदय प्रज्ञा और अज्ञान परीषह के उत्पन्न होने में हेतु है। ज्ञानावरणकर्म के यथायोग्य उदय से ज्ञान का विकास, अविकास देखा जाता है। इसीलिए इन दो परीषहों की उत्पत्ति में ज्ञानावरणकर्म का उदय हेतु बतलाया है। इनमें से अंग, उपांग, पूर्व, प्रकीर्णक आदि शास्त्रों में विशारद एवं व्याकरण, न्याय और अध्यात्म शास्त्र में निपुण ऐसे सभी मेरे सामने सूर्य के समक्ष जुगनू को तरह निस्तेज हैं, इस प्रकार के अभिमानजन्य ज्ञान के आनन्द का निरास करना, त्याग करना, शमन करना प्रज्ञापरीषहविजय कहलाता है तथा यह अज्ञ है, पशुतुल्य है, कुछ भी नहीं १ वेदनीये शेषा। २ ज्ञानावरण प्रज्ञाज्ञाने । Jain Education International -~-तत्त्वार्थसूत्र ६।१६ -तत्त्वार्थसूत्र ६।१३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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