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________________ बंधहेतु - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३ और संज्वलनकषायचतुष्क में से कोई एक कषाय । इस प्रकार जघन्यपद में पांच बंधहेतु हैं । जिनकी अंकरचना का प्रारूप इस प्रकार जानना चाहिए -- वेद योग ३ ६ इनमें से वेदत्रिक के साथ नौ योगों का गुणा करने पर ( ३ X ९ = २७) सत्ताईस भंग हुए । इनको युगलद्विक से गुणा करने पर (२७×२=५४) चउवन भंग होते हैं और इन चउवन को कषायचतुष्क से गुणा करने पर (५४४४ = २१६ ) दो सौ सोलह मग होते हैं । युगल २ कषाय ४ ७६ इस प्रकार आठवें अपूर्वक रणगुणस्थान में नाना जीवों की अपेक्षा पांच बंधहेतुओं के (२१६) दो सौ सोलह भंग होते हैं । अब छह बंधहेतु और उनके भंगों का निर्देश करते हैं A. १. उक्त पांच में भय को मिलाने पर छह हेतु होते हैं । इनके भी ऊपर बताये गये (२१६) दो सौ सोलह भंग होते हैं । २. अथवा जुगुप्सा को मिलाने से भी छह हेतु होते हैं। (२१६) दो सौ सोलह भंग हैं । Jain Education International इनके भी इस प्रकार छह बंधहेतु के कुल मिलाकर (२१६+२१६४३२) चार सौ बत्तीस भंग होते हैं । अब सात बंधहेतु और उनके भंगों को बतलाते हैं पूर्वोक्त पांच बंधहेतुओं में भय और जुगुप्सा को युगपत् मिलाने पर सात बंध हेतु होते हैं। इनके भी (२१६) दो सौ सोलह भंग होते हैं । इस प्रकार अपूर्वकरणगुणस्थान के बंधहेतुओं के सब मिलाकर (२१६+२१६+२१६+२१६ = ८६४ ) आठ सौ चौंसठ भंग होते हैं । इन बंधहेतुओं और भंगों का दर्शक प्रारूप इस प्रकार है - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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