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बंध हेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३
देशविरतगुणस्थान के बंधहेतुओं के भंगों का कुल जोड़ (१,६३,६८०) एक लाख त्रेसठ हजार छह सौ अस्सी है।
इस प्रकार से अभी तक नाना जीवों की अपेक्षा पहले मिथ्यात्व से लेकर पांचवें देशविरतगुणस्थान पर्यन्त पांच गुणस्थानों के बंधहेतु और उनके भंगों का विचार किया गया। अब प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत नामक छठे और सातवें गुणस्थान के बंधहेतु और उनके भंगों को बतलाते हैं। इनमें पांच से सात तक बंधहेतु होते हैं। जिनके भंगों को बतलाने के लिये योग के सम्बन्ध में जो विशेषता है, उसका निर्देश करते हैं। प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों के बंधहेतुओं के भंग
दोरूवाणि पमत्ते चयाहि एगं तु अप्पमत्त मि ।
जं इत्थिवेयउदए आहारगमीसगा नत्थि ॥१३॥ __ शब्दार्थ-दो-दो, रूवाणि-रूप, पमत्ते -प्रमत्तसंयतगुणस्थान में, चयाहि-कम करना चाहिये, एगं-एक, तु-इसी प्रकार (और) अप्पमत्तंमि-अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में, जं-क्योंकि, इथिवेय उदएस्त्रीवेद का उदय होने पर, आहारगमीसगा-आहारक और आहारकमिश्र, नत्थि-नहीं होते हैं।
गाथार्थ-प्रमत्तसंयतगुणस्थान में दो रूप और अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में एक रूप को कम करना चाहिये । क्योंकि स्त्रीवेद का उदय होने पर प्रमत्त में आहारक, आहारकमिश्र तथा अप्रमत्त में आहारक काययोग का उदय नहीं होता है। विशेषार्थ—प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में नाना जीवापेक्षा बंधहेतुओं के भंगों का विचार प्रारम्भ करते हुए प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान में जो विशेषता है, उसका गाथा में निर्देश किया है कि__ 'दो रूवाणि पमत्त.... .....' इत्यादि अर्थात् दो रूप कम करना चाहिये । यानि इस गाथा में यद्यपि वेद के साथ योगों का गुणा करने का संकेत नहीं किया है, लेकिन पूर्व गाथा से उसकी अनुवृत्ति लेकर
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