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पंचसंग्रह : ४ पचास हुए। ये पचास पुरुषवेद के उदय वाले, दूसरे पचास स्त्रीवेद के
और तीसरे पचास नपुसकवेद के उदयवाले होते हैं। अतः पचास को तीन वेद से गुणा करने पर (५० x ३=१५०) एक सौ पचास भंग हुए। ये एक सौ पचास क्रोधकषायी, दूसरे एक सौ पचास मानकषायी, तीसरे उतने ही माया कषायी भी और चौथे उतने हो लोभकषायी होते हैं। इसलिए एक सौ पचास को कषायचतुष्क के साथ गुणा करने पर (१५०४४=६००) छह सौ भंग होते हैं। ये छह सौ सत्यमनोयोगी, दूसरे छह सौ असत्यमनोयोगी आदि इस प्रकार ग्यारह योगों के द्वारा छह सौ को गुणा करने पर (६,६००) छियासठ सौ भंग होते हैं। __इस प्रकार से आठ बंधहेतु एक समय में अनेक जीवों की अपेक्षा छियासठ सौ प्रकार से होते हैं। यह जघन्यपदभावो आठ बंधहेतुओं के भंग जानना चाहिये। ___ अब नौ हेतु और उनके भंग बतलाते हैं
१. पूर्वोक्त आठ बंधहेतुओं में कायद्विकवध ग्रहण करने से नौ होते हैं। पांच काय के द्विकसंयोग में दस भंग होते हैं । अतः कायवध के स्थान पर दस को रखकर क्रमश: अंकों का गुणा करने पर १३,२०० तेरह हजार दो सौ भंग हुए।
२. अथवा भय को मिलाने पर नौ हेतु होते हैं। यहाँ कायवधस्थान पर पांच ही रखने पर उनके भंग पूर्ववत् (६,६००) छियासठ सौ होते हैं।
३. अथवा जुगुप्सा को मिलाने पर भी नौ बंधहेतु होते हैं। उनके भी ऊपर बताये गये अनुसार (६,६००) छियासठ सौ भंग होते हैं। ___इस प्रकार नौ बंधहेतु के तीन प्रकार हैं। इनके कुल भंगों का योग (१३,२००+६,६००+६६००=२६४००) छब्बीस हजार चार सौ होता है।
अब दस बंधहेतु और उनके भंगों को बतलाते हैं१. पूर्वोक्त आठ बंधहेतुओं में कायत्रिक का वध मिलाने से दस हेतु ।
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