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कर्मग्रन्थ भाग - १
से (संते) सत्ता में (तिनवइ) तिरानवे ९३ भेद होते हैं। (वा) अथवा इन तिरानवे प्रकृतियों में ( पनरबंधणे ) पन्द्रह बन्धनों के वस्तुतः दस बन्धनों के जोड़ देने से (सन्ते) सत्ता में (तिसयं) एकसौ तीन प्रकृतियाँ होती हैं, (तणूसु) शरीरों में अर्थात् शरीर के ग्रहण से ( बन्धणसंघाय हो ) बंधनों और संघातनों का ग्रहण हो जाता है और इसी प्रकार ( सामन्नवण्णचउ) सामान्य रूप से वर्णभी ग्रहण होता है ॥ ३१ ॥
- चतुष्क का
भावार्थ- पूर्वोक्त गाथा में चौदह पिण्ड - प्रकृतियों की संख्या, पैंसठ कही गई हैं; उनमें अट्ठाईस प्रत्येक प्रकृतियाँ - अर्थात् आठ ८ पराघात आदि, दस त्रस आदि और दस स्थावर आदि जोड़ दिये जायें तो नाम-कर्म की तिरानवे (९३) प्रकृतियाँ सत्ता की अपेक्षा से समझनी चाहिये। इन तिरानवे प्रकृतियों में, बन्धननाम के पाँच भेद जोड़ दिये गये हैं, परन्तु किसी अपेक्षा से बन्धननाम के पन्द्रह भेद भी होते हैं, ये सब तिरानवें प्रकृतियों में जोड़ दिये जायें तो नाम कर्म के एक सौ तीन भेद होंगे - अर्थात् बन्धननाम के पन्द्रह भेदों में से पाँच भेद जोड़ देने पर तिरानवे भेद कह चुके हैं, सिर्फ बन्धननाम के शेष दस भेद जोड़ना बाकी रह गया था, सो इनके जोड़ देने से ९३ + १० = १०३ नाम कर्म के भेद सत्ता की अपेक्षा से हुये । नामकर्म की ६७ प्रकृतियाँ इस प्रकार समझनी चाहिये—बन्धनाम के १५ भेद और संघातननाम के पाँच भेद, ये बीस प्रकृतियाँ, शरीरनाम के पाँच भेदों में शामिल की जायें, इसी तरह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श इन चार प्रकृतियों की बीस उत्तर - प्रकृतियों को चार प्रकृतियों में शामिल किया जाय, इस प्रकार वर्ण आदि की सोलह तथा बन्धन — संघातन की बीस, दोनों को मिलाने से छत्तीस प्रकृतियाँ हुई । नामकर्म की एक सौ तीन प्रकृतियों में से छत्तीस को घटा देने से ६७ प्रकृतियाँ रहीं।
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औदारिक आदि शरीर के सदृश ही औदारिक आदि बन्धन तथा औदारिक आदि संघातन है इसलिये बन्धनों और संघातनों का शरीरनाम में अन्तर्भाव कर दिया गया। वर्ण की पाँच उत्तर - 1 - प्रकृतियाँ हैं इसी प्रकार गन्ध की दो, रस की पाँच और स्पर्श की आठ उत्तर- - प्रकृतियाँ हैं। साजात्य को लेकर विशेष भेदों की विवक्षा नहीं की; किन्तु सामान्य रूप से एक-एक ही प्रकृति ली गई।
बन्ध आदि की अपेक्षा
इय सत्तट्ठी बंधोदए य
बंधुद
सत्ताए
कर्म- प्रकृतियों की अलग- अलग संख्याएँ
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य सम्ममीसया बन्थे ।
वीसवीसऽवन्नसयं ।। ३२ ।।
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