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कर्मग्रन्थभाग-१
(ख) अपने शरीर के पालन के लिये इष्ट वस्तु में प्रवृत्ति और अनिष्ट वस्तु से निवृत्ति के लिये उपयोगी, मात्र वर्तमान कालिक ज्ञान जिससे होता है, वह हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा है। यही संज्ञा द्वीन्द्रिय आदि असंज्ञी जीवों को होती है।
(ग) दृष्टिवादोपदेशिकी-यह संज्ञा, चतुर्दशपूर्वधर को होती है। (४) जिन जीवों को मन ही नहीं है, वे असंज्ञी, उनका श्रुत, असंज्ञीश्रुत कहा
जाता है। (५) सम्यक्श्रुत-सम्यग्दृष्टि जीवों का श्रुत, सम्यक्श्रुत है। (६) मिथ्यादृष्टि जीवों का श्रुत, मिथ्याश्रुत है। (७) सादिश्रुत—जिसका आदि हो वह सादिश्रुत है। (८) आनादिश्रुत—जिसका आदि न हो, वह अनादिश्रुत है। (९) सपर्यवसितश्रुत—जिसका अन्त हो, वह सपर्यवसितश्रुत है। (१०) अपर्यवसितश्रुत—जिसका अन्त न हो, वह अपर्यवसितश्रुत है। (११) गमिकश्रुत—जिसमें एक सरीखे पाठ हों, वह गमिकश्रुत है, जैसे
दृष्टिवाद। (१२) अगमिकश्रुत-जिसमें एक सरीखे पाठ न हों, वह अगमिकश्रुत है, जैसे
कालिकश्रुत।. (१३) अङ्गप्रविष्टश्रुत-आचाराङ्ग आदि बारह अंगों के ज्ञान को अङ्गप्रविष्टश्रुत
कहते हैं। (१४) अङ्गबाह्यश्रुत-द्वादशाङ्गी से जुदा, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन-प्रकटणादि
का ज्ञान, अङ्गबाह्यश्रुत कहा जाता है।
सादिश्रुत, अनादिश्रुत, सपर्यवसितश्रुत और अपर्यवसितश्रुत-ये प्रत्येक, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से चार-चार प्रकार के हैं। जैसे-द्रव्य को लेकर एक जीव की अपेक्षा से श्रुतज्ञान, सादि-सपर्यवसित है-अर्थात् जब जीव को सम्यक्त्व प्राप्त हुआ, तब साथ में श्रुतज्ञान भी हुआ और जब वह सम्यक्त्व का वमन (त्याग) करता है तब अथवा केवली होता है तब श्रुतज्ञान का अन्त हो जाता है, इस प्रकार एक जीव की अपेक्षा से श्रुतज्ञान, सादि-सान्त है।
सब जीवों की अपेक्षा से श्रुतज्ञान अनादि अनन्त है; क्योंकि संसार में पहले पहल अमुक जीव को श्रुतज्ञान हुआ तथा अमुक जीव के मुक्त होने से
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