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कर्मग्रन्थभाग-१
व्यञ्जनावग्रह कहलाता है। यह व्यञ्जनावग्रह पदार्थ की सत्ता के ग्रहण करने पर होता है-अर्थात् प्रथम सत्ता की प्रतीति होती है, बाद में व्यञ्जनावग्रह।
स्पर्शनेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह-स्पर्शन-इन्द्रिय के द्वारा जो अत्यन्त अव्यक्त ज्ञान होता है, वह स्पर्शनेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह है। इसी प्रकार तीन इन्द्रियों से होने वाले व्यञ्जनावग्रहों को भी समझना चाहिये। ___व्यञ्जनावग्रह का जघन्य काल, आवलिका के असंख्यातवें भाग जितना है और उत्कृष्ट काल श्वासोच्छ्वासपृथक्त्व अर्थात् दो श्वासोच्छ्वास से लेकर नौ श्वासोच्छ्वास तक है। _ 'मतिज्ञान के शेष भेद तथा श्रुतज्ञान के उत्तर-भेदों की संख्या।' अत्थुग्गह ईहावायधारणा करणमाणसेहिं छहा । इय अट्ठवीसभेयं चउदसहा वीसहा व सुयं ।।५।।
(अत्युग्गहईहावायधारणा) अर्थावग्रह, ईहा, अपाय और धारणा, ये प्रत्येक, (करणमाणसेहिं) करण अर्थात् पाँच इन्द्रियाँ और मन से होते हैं इसलिये (छहा) छः प्रकार के हैं (इय) इस प्रकार मतिज्ञान के (अट्ठवीसभेयं) अट्ठाईस भेद हुये (सुयं) श्रुतज्ञान (चउदसहा) चौदह प्रकार का (व) अथवा (वीसहा) बीस प्रकार का है ।।५।।
भावार्थ-मतिज्ञान के अट्ठाईस भेदों में से चार भेद पहले कह चुके हैं, अब शेष चौबीस भेद यहाँ दिखलाये हैं-अर्थावग्रह, ईहा, अपाय और धारणा, ये चार, मतिज्ञान के भेद हैं। ये चारों, पाँचों इन्द्रियों से तथा मन से होते हैं, इसलिये प्रत्येक के छ:-छ: भेद हये। छ: को चार से गुणने पर चौबीस संख्या हुई। श्रुतज्ञान के चौदह भेद होते हैं और बीस भेद भी होते हैं।
१. अर्थावग्रह-पदार्थ के अव्यक्त ज्ञान को अर्थावग्रह कहते हैं, जैसे 'यह कुछ है।' अर्थावग्रह में भी पदार्थ के वर्ण, गन्ध आदि का ज्ञान नहीं होता। इसके छह भेद हैं- १. स्पर्शनेन्द्रिय अर्थावग्रह, २. रसनेन्द्रिय अर्थावग्रह, ३. घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह, ४. चक्षुरिन्द्रय अर्थावग्रह, ५ श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह और ६. मननोइन्द्रिय अर्थावग्रह। अर्थावग्रह का काल प्रमाण एक समय है।
२. ईहा-अवग्रह से जाने हुये पदार्थ के विषय में धर्मविषयक विचारणा को ईहा कहते हैं, जैसे कि 'यह खम्भा ही होना चाहिये, मनुष्य नहीं।' ईहा
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