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________________ कर्मग्रन्थभाग- १ अर्थात् ज्ञानबल से पहले बाँधे हुये कर्मों को गला दो, नये कर्मों का बन्ध मत होने दो और प्रारब्ध कर्म को भोग कर क्षीण कर दो, इसके बाद परब्रह्मस्वरूप से अनन्त काल तक बने रहो। पुराने कर्मों के गलाने को 'निर्जरा' और नये कर्मों के बन्ध न होने देने को 'संवर' कहते हैं। जब तक शत्रु का स्वरूप समझ में नहीं आता तब तक उस पर विजय पाना असम्भव है। कर्म से बढ़कर कोई शत्रु नहीं है जिसने आत्मा की अखण्ड शान्ति का नाश किया है। अतएव उस शान्ति की जिन्हें चाह है, वे कर्म का स्वरूप जानें, भगवान् महावीर की तरह कर्म - शत्रु का नाश कर अपने असली स्वरूप को प्राप्त करें और अपनी 'वेदाहमेतं परमं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्' । की दिव्यध्वनि को सुनाते रहें। इसी के लिये कर्मग्रन्थ बने हुये हैं। 'कर्मबन्ध के चार भेद तथा मूल प्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियों की संख्या' - दिट्ठता । पयइठिइरसपएसा तं चउहा मोयगस्स मूलपगइट्ठउत्तरपगईअडवन्नसयमेयं ।।२।। (तं) वह कर्मबन्ध (मोयगरस) लड्डू के (दिट्टंता) दृष्टान्त से (पयइठिइरसपरसा) प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश की अपेक्षा से (चउहा) चार प्रकार का है। (मूलपगइट्ठ) मूल प्रकृतियाँ आठ और ( उत्तरपगई अडवन्नसयमेयं) उत्तर - प्रकृतियाँ एक सौ अट्ठावन १५८ हैं | | २ ॥ भावार्थ - प्रथम गाथा में कर्म का स्वरूप कहा गया है उसके बन्ध के चार भेद हैं - १. प्रकृतिबन्ध, २. स्थितिबन्ध, ३. रसबन्ध और ४ प्रदेशबन्ध । इन चार भेदों को समझाने के लिये लड्डू का दृष्टान्त दिया गया है। कर्म की मूल-प्रकृतियाँ आठ और उत्तर- : - प्रकृतियाँ एक सौ अट्ठावन १५८ हैं । १. प्रकृतिबन्ध - जीव के द्वारा ग्रहण किये हुये कर्म-पुद्गलों में भिन्न स्वभावों का अर्थात् शक्तियों का पैदा होना, प्रकृतिबन्ध कहलाता है। २. स्थितिबन्ध - जीव के द्वारा ग्रहण किये हुये कर्म - पुद्गलों में अमुक काल तक अपने स्वभावों को त्याग न कर जीव के साथ रहने की कालमर्यादा का होना, स्थितिबन्ध कहलाता है। ३. रसबन्ध - जीव के द्वारा ग्रहण किये हुये कर्म - पुद्गलों में रस के तरतमभाव का अर्थात् फल देने की न्यूनाधिक शक्ति का होना, रसबन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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