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________________ xxvi कर्मग्रन्थभाग-१ कहा जा सकता कि उक्त भावना मिथ्या है; क्योंकि उसका आविर्भाव नैसर्गिक और सर्वविदित है। विकासवाद भले ही भौतिक रचनाओं को देखकर जड़ तत्त्वों पर खड़ा किया गया हो, पर उसका विषय चेतन भी बन सकता है। इन सब बातों पर ध्यान देने से यह माने बिना संतोष नहीं होता कि चेतन एक स्वतन्त्र तत्त्व है। वह जाने या अनजाने जो अच्छा-बुरा कर्म करता है उसका फल, उसे भोगना ही पड़ता है और इसलिये उसे पुनर्जन्म के चक्कर में घूमना पड़ता है। बुद्ध भगवान् ने भी पुनर्जन्म माना है। पक्का निरीश्वरवादी जर्मन पण्डित निट्शे भी कर्मचक्रकृत पूर्वजन्म को मानता है। यह पुनर्जन्म की स्वीकृति आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को मानने के लिये प्रबल प्रमाण है। १०. कर्म-तत्त्व के विषय में जैनदर्शन की विशेषता जैनदर्शन में प्रत्येक कर्म की बध्यमान्, सत् और उदयमान ये तीन अवस्थायें मानी हुई हैं। उन्हें क्रमशः बन्ध, सत्ता और उदय कहते हैं। जैनेतर दर्शनों में भी कर्म की इन अवस्थाओं का वर्णन है। उनमें बध्यमान कर्म को 'क्रियमाण' सत्कर्म को 'संचित' और उदयमान कर्म को 'प्रारब्ध' कहा है। किन्तु जैनशास्त्र में ज्ञानावरणीय आदिरूप से कर्म का ८ तथा १४८ भेदों में वर्गीकरण किया गया है और इसके द्वारा संसारी आत्मा की अनुभवसिद्ध भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का जैसा खुलासा किया गया है वैसा किसी भी जैनेतर दर्शन में नहीं है। पातञ्जलदर्शन में कर्म के जाति, आयु और भोग तीन तरह के विपाक बतलाये हैं, परन्तु जैनदर्शन में कर्म के सम्बन्ध में किये गये विचार के सामने वह वर्णन नाम-मात्र का है। आत्मा के साथ कर्म का बन्ध कैसे होता है? किन-किन कारणों से होता है? किस कारण से कर्म में कैसी शक्ति पैदा होती है? कर्म, अधिक से अधिक और कम से कम कितने समय तक आत्मा के साथ लगा रह सकता है? आत्मा के साथ लगा हुआ भी कर्म, कितने समय तक विपाक देने में असमर्थ है? विपाक का नियत समय भी बदला जा सकता है या नहीं? यदि बदला जा सकता है तो उसके लिये कैसे आत्मपरिणाम आवश्यक हैं? एक कर्म, अन्य कर्मरूप कब बन सकता है? उसकी बन्धकालीन तीव्र-मन्द शक्तियाँ किस प्रकार बदली जा सकती हैं? पीछे से विपाक देने वाला कर्म पहले ही कब और किस तरह भोगा जा सकता है? कितना भी बलवान् कर्म क्यों न हो, पर उसका विपाक शुद्ध आत्मिक परिणामों से कैसे रोक दिया जाता है? कभी-कभी आत्मा के शतशः प्रयत्न करने पर भी कर्म, अपना विपाक बिना भोगवाये नहीं छोड़ता? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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