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कर्मग्रन्थभाग-१
विषय-प्रवेश कर्म-शास्त्र जानने की चाह रखने वालों के लिए आवश्यक है कि वे 'कर्म' शब्द का अर्थ, भिन्न-भिन्न शास्त्रों में प्रयोग किये गये उसके पर्याय शब्द, कर्म का स्वरूप, आदि निम्न विषयों से परिचित हो जायें तथा आत्म-तत्त्व स्वतन्त्र है यह भी जान लें। १. कर्म शब्द के अर्थ
'कर्म' शब्द लोक-व्यवहार और शास्त्र दोनों में प्रसिद्ध है। उसके अनेक अर्थ होते हैं। साधारण लोग अपने व्यवहार में काम, धन्धे या व्यवसाय के मतलब से 'कर्म' शब्द का प्रयोग करते हैं। शास्त्र में उसकी एक गति नहीं है। खाना, पीना, चलना, काँपना आदि किसी भी हल-चल के लिये-चाहे वह जीव की हो या जड़ की- कर्म शब्द का प्रयोग किया जाता है।
कर्मकाण्डी मीमांसक, यज्ञ-याग आदि क्रिया-कलाप अर्थ में; स्मार्त विद्वान, ब्राह्मण आदि चार वर्णों और ब्रह्मचर्य आदि चार आश्रमों के नियत कर्मरूप अर्थ में; पौराणिक लोग, व्रत, नियम आदि धार्मिक क्रियाओं के अर्थ में; वैयाकरण लोग, कर्ता जिस को अपनी क्रिया के द्वारा पाना चाहता है उस अर्थ में-अर्थात् जिस पर कर्ता के व्यापार का फल गिरता है उसके अर्थ में; और नैयायिक लोग उत्क्षेपण आदि पाँच सांकेतिक कर्मों में कर्म शब्द का व्यवहार करते हैं। परन्तु जैनशास्त्र में कर्म शब्द से दो अर्थ लिये जाते हैं। पहला राग-द्वेषात्मक परिणाम, जिसे कषाय (भाव-कर्म) कहते हैं और दूसरा कार्मण जाति के पुद्गल-विशेष, जो कषाय के निमित्त से आत्मा के साथ चिपके हये होते हैं और द्रव्य-कर्म कहलाते हैं। २. कर्म शब्द के कुछ पर्याय
जैन दर्शन में जिस अर्थ के लिये 'कर्म' शब्द प्रयुक्त होता है उस अर्थ • के अथवा उससे कुछ मिलते-जुलते अर्थ के लिये जैनेतर दर्शनों में ये शब्द मिलते हैं-माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, दैव, भाग्य आदि।
माया, अविद्या, प्रकृति ये तीन शब्द वेदान्त दर्शन में पाये जाते हैं। इनका मूल अर्थ करीब-करीब वही है, जिसे जैन-दर्शन में भाव-कर्म कहते हैं। 'अपूर्व' शब्द मीमांसा दर्शन में मिलता है। 'वासना' शब्द बौद्ध दर्शन में प्रसिद्ध है, परन्तु योग दर्शन में भी उसका प्रयोग किया गया है। ‘आशय' शब्द विशेष कर योग तथा सांख्य दर्शन में मिलता है। धर्माधर्म, अदृष्ट और संस्कार, इन
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