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________________ प्रस्तावना आगे चलकर 'श्वेताम्बरीय कर्मविषयक ग्रन्थ' और 'दिगम्बरीय कर्मविषयक ग्रन्थ' शीर्षक दो कोष्टक दिये जाते हैं, जिनमें उन कर्मविषयक ग्रन्थों का संक्षिप्त विवरण है जो श्वेताम्बरीय तथा दिगम्बरीय साहित्य में अभी वर्तमान हैं या जिनका पता चला है। कर्मशास्त्र में शरीर, भाषा, इन्द्रिय आदि पर विचार शरीर, जिन तत्त्वों से बनता है वे तत्त्व शरीर के सूक्ष्म, स्थूल आदि प्रकार, उसकी रचना, उसका वृद्धि-क्रम, ह्रास-क्रम आदि अनेक अंशों को लेकर शरीर का विचार, शरीर-शास्त्र में किया जाता है। इसी से उस शास्त्र का वास्तविक गौरव है। वह गौरव कर्मशास्त्र को भी प्राप्त है। क्योंकि उसमें भी प्रसंगवश ऐसी अनेक बातों का वर्णन किया गया है जो कि शरीर से सम्बन्ध रखती हैं। शरीरसम्बन्धी ये बातें पुरातन पद्धति से कही हुई हैं सही, परन्तु इससे उनका महत्त्व कम नहीं है। क्योंकि सभी वर्णन सदा नये नहीं रहते। आज जो विषय नया दिखाई देता है वही थोड़े दिनों के बाद पुराना हो जायगा। वस्तुतः काल के बीतने से किसी में पुरानापन नहीं आता। पुरानापन आता है उसका विचार न करने से। सामयिक पद्धति से विचार करने पर पुरातन शोधों में भी नवीनतासी आ जाती है। इसलिए अतिपुरातन कर्मशास्त्र में भी शरीर की बनावट, उसके प्रकार, उसकी मजबूती और उसके कारणभूत तत्त्वों पर जो कुछ थोड़े बहुत विचार पाये जाते हैं, वह उस शास्त्र की यथार्थ महत्ता का चिह्न है। इसी प्रकार कर्मशास्त्र में भाषा के सम्बन्ध में तथा इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी मनोरंजक व विचारणीय चर्चा मिलती है। भाषा किस तत्त्व से बनती है? उसके बनने में कितना समय लगता है? उसकी रचना के लिये अपनी वीर्यशक्ति का प्रयोग आत्मा किस तरह और किस साधन के द्वारा करता है? भाषा की सत्यता-असत्यता का आधार क्या है? कौन-कौन प्राणी भाषा बोल सकते हैं? किस-किस जाति के प्राणी में, किस-किस प्रकार की भाषा बोलने की शक्ति है? इत्यादि अनेक प्रश्न, भाषा से सम्बन्ध रखते हैं। उनका महत्त्वपूर्ण व गम्भीर विचार, कर्मशास्त्र में विशद् रीति से किया हुआ मिलता है। इसी प्रकार इन्द्रियाँ कितनी हैं? कैसी हैं? उनके कैसे-कैसे भेद तथा कैसीकैसी शक्तियाँ हैं? किस-किस प्राणी को कितनी-कितनी इन्द्रियाँ प्राप्त हैं? बाह्य और आभ्यन्तरिक इन्द्रियों का आपस में क्या सम्बन्ध है? उनका कैसा-कैसा आकार है? इत्यादि अनेक प्रकार के इन्द्रियों से सम्बन्ध रखने वाले विचार, कर्मशास्त्र में पाये जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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