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________________ कर्मग्रन्थभाग- ३ भावार्थ पर मनःपर्यायज्ञान — इसका आविर्भाव तो सातवें गुणस्थान में होता है, इसकी प्राप्ति होने के बाद मुनि प्रमादवश छठे गुणस्थान को पा भी लेता है। इस ज्ञान को धारण करने वाला, पहले पाँच गुणस्थानों में वर्तमान नहीं रहता तथा अन्तिम दो गुणस्थानों में भी यह ज्ञान नहीं रहता; क्योंकि उन दो गुणस्थानों में क्षायिकज्ञान होने के कारण किसी क्षायोपशमिक ज्ञान का होना सम्भव ही नहीं है। इसलिये मनःपर्याय ज्ञान में उपर्युक्त ७ गुणस्थान माने हुये हैं। इसमें आहारक-द्विक का बन्ध भी सम्भव है। इसी से इस ज्ञान में सामान्यरूप से ६५ और छठे से बारहवें तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान ही प्रकृतियों का बन्ध - स्वामित्व समझना । सामायिक और छेदोपस्थापनीय — ये दो संयम छठे आदि ४ गुणस्थान पर्यन्त पाये जाते हैं। इसलिये इनके समय आहारक- द्विक का बन्ध सम्भव है। अतएव इन संयमों का बन्ध-स्वामित्व सामान्यरूप से ६५ प्रकृतियों का और छठे आदि प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान ही है । १८५ परिहारविशुद्धिक- संयम - इसे धारण करने वाला सातवें से आगे के गुणस्थानों को नहीं पा सकता। इस संयम के समय यद्यपि अहारक - द्विक का उदय नहीं होता, पर उसके बन्ध का सम्भव है। इसलिये इसका बन्ध - स्वामित्व सामान्यरूप से ६५ प्रकृतियों का और विशेषरूप से बन्धाधिकार के समानअर्थात् छठे गुणस्थान में ६३, सातवें में ५९ या ५८ प्रकृतियों का है। केवल - द्विक- इसके दो गुणस्थानों में से चौदहवें में तो बन्ध होता ही नहीं, तेरहवें में होता है पर सिर्फ सातावेदनीय का। इसलिये इसका सामान्य तथा विशेष बन्ध-स्वामित्व एक ही प्रकृति का है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधि- द्विक इन ४ मार्गणाओं में पहले तीन गुणस्थान तथा अन्तिम दो गुणस्थान नहीं होते; क्योंकि प्रथम तीन गुणस्थानों में शुद्ध सम्यक्त्व न होने से अज्ञान माना जाता है और अन्तिम दो गुणस्थानों में ज्ञान होता है सही पर वह क्षायिक, क्षायोपशमिक नहीं। इसी कारण इनमें उपर्युक्त ९ गुणस्थान माने हुये हैं। इन ४ मार्गणाओं में भी आहारक-द्विक का बंध सम्भव होने के कारण सामान्यरूप से ७९ प्रकृतियों का और चौथे से बारहवें १. परिहारविशुद्ध संयमी को दस पूर्व का भी पूर्ण ज्ञान नहीं होता। इससे उसको आहारकद्विक का उदय असंभव है; क्योंकि इसका उदय चतुर्दशपूर्वधारी जो कि आहारक शरीर को बना सकता है— उसी को होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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