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________________ १७८ कर्मग्रन्थभाग-३ गुणस्थान के समय उस योग में केवल सातावेदनीय का बन्ध होता है। कार्मणकाययोग में तिर्यञ्चआयु और नरक आयु के अतिरिक्त और सब प्रकृतियों का बन्ध औदारिकमिश्र-काययोग के समान ही है। आहारक-द्विक में आहारककाययोग और आहारक-मिश्र-काययोग में सामान्य तथा विशेषरूप से ६३ प्रकृतियों के ही बन्ध की योग्यता है।।१५।। भावार्थ-पूर्व गाथा तथा इस गाथा में मिलाकर पहले, दूसरे, चौथे और तेरहवें इन ४ गुणस्थानों में औदारिक-मिश्र-काययोग के बन्धस्वामित्व का विचार किया गया है, कार्मग्रन्थिक मत के अनुसारः क्योंकि सिद्धान्त के मतानुसार तो उस योग में और भी दो (पाँचवां, छठा) गुणस्थान माने जाते हैं। वैक्रियलब्धि से वैक्रिय शरीर का आरम्भ करने के समय अर्थात् पाँचवें-छठे गुणस्थान में और नहीं है।' यह समाधान प्रामाणिक जान पड़ता है। इसकी पुष्टि के लिये पहले तो यह कहा जा सकता है कि मूल गाथा में ‘पचहत्तर' संख्या का बोधक कोई पद ही नहीं है। दूसरे श्री दिगम्बराचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती भी द्वितीय गुणस्थान में २९ प्रकृतियों का विच्छेद मानते हैं'पण्णारसमुनतीसं मिच्छदुगे अविरदे छिदी चउरो।' (गोम्मटसार, कर्मकाण्ड गा. ११७) यद्यपि टीका में ७५ प्रकृतियों के बन्ध का निर्देश स्पष्ट किया है—'प्रागुल्का चतुर्नवतिरनन्तानुबन्ध्यादि चतुर्विशतिप्रकृतीविना जिननामादि, प्रकृतिपञ्चकयुता च पंचसप्ततिस्तामौदारिकमिश्रकाययोगी सम्यक्त्वे बध्नाति' तथा बन्धस्वामित्व नामक प्राचीन तीसरे कर्मग्रन्थ में भी गाथा (२८-२९) में ७५ प्रकृतियों के ही बन्ध का विचार किया है, तथापि जानना चाहिए कि उक्त टीका, मूल कर्ता श्री देवेन्द्रसूरि की नहीं है और टीकाकार ने इस विषय में कुछ शंका-समाधान नहीं किया है; इसी प्रकार प्राचीन बन्धस्वामित्व की टीका में भी श्री गोविन्दाचार्य ने न तो इस विषय में कुछ शंका उठाई है और न समाधान ही किया है। इससे जान पड़ता है कि यह विषय यूं ही बिना विशेष विचार किये परम्परा से मूल तथा टीका में चला आया है। इसपर और कार्मग्रन्थिकों को विचार करना चाहिये। तब तक श्री जयसोमसूरि के समाधान को महत्त्व देने में कोई आपत्ति नहीं। तिर्यञ्च तथा मनुष्य ही औदारिकमिश्रकाययोगी हैं और वे चतुर्थ गुणस्थान में क्रम से ७० तथा ७१ प्रकृतियों को यद्यपि बाँधते हैं तथापि औदारिकमिश्रकाययोग में चतुर्थ गुणस्थान के समय ७१ प्रकृतियों का बन्ध न मान कर ७० प्रकृतियों के बन्ध का समर्थन इसलिये किया जाता है कि उक्त योग अपर्याप्त अवस्था ही में पाया जाता है। अपर्याप्त अवस्था में तिर्यञ्च या मनुष्य कोई भी देवायु नहीं बाँध सकते। इससे तिर्यञ्च तथा मनुष्य की बन्ध्य प्रकृतियों में देवआयु परिगणित है पर औदारिकमिश्रकाययोग की बन्ध्य प्रकृतियों में से उसको निकाल दिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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