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________________ १७६ कर्मग्रन्थभाग-३ द्विक इन पाँच के अतिरिक्त उक्त ११४ में से शेष १०९१ प्रकृतियों का बन्ध होता है और दूसरे गुणस्थान में ९४ प्रकृतियों का बन्ध होता है, क्योंकि मनुष्य आय, तिर्यञ्च आय तथा सूक्ष्मत्रिक से लेकर सेवार्त-पर्यन्त १३-कुल १५ प्रकृतियों का बन्ध उसमें नहीं होता।।१४।। १. मिथ्यात्व गुणस्थान में जिन १०९ प्रकृतियों का बन्ध-स्वामित्व औदारिक-मिश्र काययोग में माना जाता है, उनमें तिर्यञ्चआयु और मनुष्यआयु भी परिगणित है। इस पर श्रीजीवविजयजी ने अपने टबे में संदेह किया है कि 'औदारिक-मिश्र-काययोग शरीर पर्याप्ति के पूर्ण होने पर्यन्त ही रहता है, आगे नहीं; और आयुबन्ध शरीरपर्याप्ति और इन्द्रिय पर्याप्ति पूरी हो जाने के बाद होता है, पहले नहीं। अतएव औदारिक मिश्रकाययोग के समय अर्थात् शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पूर्व में, आयु बन्ध का किसी तरह सम्भव नहीं। इसलिये उक्त दो आयुओं का १०९ प्रकृतियों में परिगणन विचारणीय है।' यह संदेह शीलांक-आचार्य के मत को लेकर ही किया है, क्योंकि वे औदारिक-मिश्र-काययोग को शरीर पर्याप्तिपूर्ण बनने तक ही मानते हैं। परन्तु उक्त संदेह का निरसन इस प्रकार किया जा सकता है—पहले तो यह नियम नहीं है कि शरीरपर्याप्ति पूरी होने पर्यन्त ही औदारिक-मिश्र-काययोग मानना, आगे नहीं। श्रीमान् भद्रबाहु स्वामी की जिस 'जोएण कम्मएणं आहारेइ अणंतरं जीवों। तेण परं मीसेणं जाव सरीर निफ्फत्ती।।१।' उक्ति के आधार से औदारिक मिश्र-काययोग का सद्भाव शरीरपर्याप्ति की पूर्णता तक माना जाता है उस उक्ति के 'सरीर निफ्फत्ती' पद का यह भी अर्थ हो सकता है कि शरीर पूर्ण बन जाने पर्यन्त उक्त योग रहता है। शरीर की पूर्णता केवल शरीर पर्याप्तिक बन जाने से नहीं हो सकती। इसके लिये जीव की अपने-अपने योग्य सभी पर्याप्तियों का बन जाना आवश्यक है। स्वयोग्य सम्पूर्ण पर्याप्तियाँ पूर्ण बन जाने ही से शरीर का पूरा बन जाना माना जा सकता है। ‘सरीर निफ्फत्ती' पद का यह अर्थ मन:कल्पित नहीं है। इस अर्थ का समर्थन श्री देवेन्द्रसूरि ने स्वरचित चौथे कर्मग्रन्थ की चौथी गाथा के 'तणुपज्जेसु उरलमन्ने' इस अंश की टीका में किया है। वह इस प्रकार है'यद्यपि तेषां शरीरपर्याप्तिः समजनिष्ट तथापीन्द्रियोच्छ्वासादीनामद्याप्यनिष्पन्नत्वेन शरीरस्यासंपूर्णत्वादत एवकार्मणस्याप्यद्यापि व्याप्रियमाणत्वादौदारिकमिश्रमेव तेषां युक्तया घटमानमिति।' जब यह भी पक्ष है कि ‘स्वयोग्य सब पर्याप्तियाँ पूरी हो जाने पर्यन्त औदारिक मिश्रकाययोग रहता है' तब उक्त सन्देह को कुछ भी अवकाश नहीं है, क्योंकि इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण बन चुकने के बाद जबकि आयु-बन्ध का अवसर आता है तब भी औदारिक-मिश्र-काययोग तो रहता ही है। इसलिये औदारिक-मिश्र-काययोग में मिथ्यात्व गुणस्थान के समय उक्त दो आयुओं का बन्ध-स्वामित्व माना जाता है सो उक्त पक्ष की अपेक्षा से युक्तं ही है। मिथ्यात्व के समय उक्त दो आयुओं का बन्धस्वामित्व औदारिक-मिश्र-काययोग में, जैसा कर्मग्रन्थ में निर्दिष्ट है वैसा ही गोम्मटसार में भी। यथा'ओराले वा मिस्से णहि सुरणिरयाउहारणिरयदुगं। मिच्छदुगे देवचओ तित्थं णहि अविरदे अस्थि।।' (कर्मकाण्ड. गाथा ११६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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