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________________ १६८ कर्मग्रन्थभाग-३ रयणु व सणं कुमारा-इ आणयाई उज्जोयचउ रहिया। अपज्जतिरिय व नवसय मिगिदिपुढ़विजलतरुविगले।।११।। रत्मवत्सनत्कुमारादय आनतादय उद्योतचतुर्विरहिताः। अपर्याप्ततिर्यग्वन्नवशतमेकेन्द्रियपृथ्वीजलतरुविकले।।११।। अर्थ-तीसरे सनत्कुमार-देवलोक से लेकर आठवें सहस्रार तक के देव, रत्नप्रभा-नरक के नारकों के समान प्रकृति बंध के अधिकारी हैं; अर्थात् वे सामान्यरूप से १०१, मिथ्यात्वगुणस्थान में १००, दूसरे गुणस्थान में ९६, तीसरे में ७० और चौथे गुणस्थान में ७२ प्रकृतियों को बांधते हैं। आनत से अच्युत-पर्यन्त ४ देवलोक और ९ ग्रैवेयक के देव उद्योत-चतुष्क के अतिरिक्त और सब प्रकृतियों को सनत्कुमार के देवों के समान बांधते हैं; अर्थात् वे सामान्यरूप से ९७, पहले गुणस्थान में ९६, दूसरे में ९२, तीसरे में ७० और चौथे गुणस्थान में ७२ प्रकृतियों को बांधते हैं। (इन्द्रिय और कायमार्गणा का बन्धस्वामित्व)—एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पृथ्वीकायिक, जलकायिक तथा वनस्पतिकायिक जीव, अपर्याप्त तिर्यश्च के समान जिननामकर्म से लेकर नरकत्रिक-पर्यन्त ११ प्रकृतियों को छोड़कर बंध योग्य १२० में से शेष १०९ प्रकृतियों को सामान्यरूप से तथा पहले गुणस्थान में बांधते हैं।।११।। भावार्थ-उद्योत-चतुष्क से उद्योतनामकर्म, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चआनुपूर्वी और तिर्यश्चआयु का ग्रहण होता है। यद्यपि अनुत्तरविमान के विषय में गाथा में कुछ नहीं कहा है, परन्तु समझ लेना चाहिये कि उसके देव सामान्यरूप से तथा चौथे गुणस्थान में ७२ प्रकृतियों के बंध के अधिकारी हैं। उन्हें चौथे के अतिरिक्त दूसरा गुणस्थान नहीं होता। अपर्याप्त तिर्यञ्च की तरह उपर्युक्त एकेन्द्रिय आदि ७ मार्गणाओं के जीवों के परिणाम न तो सम्यक्त्व तथा चारित्र के योग्य शुद्ध ही होते हैं और न नरकयोग्य अति अशुद्ध ही, अतएव वे जिननामकर्म आदि ११ प्रकृतियों को बांध नहीं सकते।।११।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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