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________________ कर्मग्रन्थभाग-३ मनुष्यगति का बंधस्वामित्व। इय चउगुणेसु वि नरा, परमजया सजिण ओहु देसाई। जिण इक्कारस हीणं, नवसउ अपजत्त तिरियनरा।।९।। इति चतुर्गुणेष्वपि नराः परमयताः सजिनमोघो देशादिषु। जिनैकादशहीनं नवशतमपर्याप्ततिर्यङ्नराः।।९।। अर्थ-पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे गुणस्थान में वर्तमान पर्याप्त मनुष्य, उन्हीं ४ गुणस्थानों में वर्तमान पर्याप्त तिर्यश्च के समान प्रकृतियों को बांधते हैं। भेद केवल इतना ही है कि चौथे गुणस्थान वाले पर्याप्त तिर्यञ्च, जिननामकर्म को नहीं बांधते पर मनुष्य उसे बांधते हैं तथा पाँचवें गुणस्थान से लेकर आगे के सब गुणस्थानों में, वर्तमान मनुष्य दूसरे कर्मग्रन्थ में कहे हुये क्रम के अनुसार प्रकृतियों को बांधते हैं। जो तिर्यञ्च तथा मनुष्य अपर्याप्त हैं वे जिननामकर्म से लेकर नरकत्रिक-पर्यन्त ११ प्रकृतियों को छोड़ कर बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में से शेष १०९ प्रकृतियों को बांधते हैं।।९।। भावार्थ-जिस प्रकार पर्याप्त तिर्यश्च पहले गुणस्थान में ११७, दूसरे में १०१ और तीसरे गुणस्थान में ६९ प्रकृतियों को बांधते हैं उसी प्रकार पर्याप्त मनुष्य भी उन ३ गुणस्थानों में उतनी-उतनी ही प्रकृतियों को बांधते हैं। परन्तु चौथे गुणस्थान में पर्याप्त तिर्यश्च ७० प्रकृतियों को बांधते हैं, पर पर्याप्त मनुष्य ७१ प्रकृतियों को; क्योंकि वे जिननामकर्म को बांधते हैं लेकिन तिर्यश्च उसे नहीं बांधते। पाँचवें से लेकर तेरहवें गुणस्थान-पर्यन्त प्रत्येक गुणस्थान में जितनीजितनी बन्ध योग्य प्रकृतियाँ दूसरे कर्मग्रन्थ के बन्धाधिकार में कही हुई हैं, उतनीउतनी ही प्रकृतियों को उस-उस गुणस्थान के समय पर्याप्त मनुष्य बांधते हैं; जैसे—पाँचवें गुणस्थान में ६७, छठे में ६३, सातवें में ५९ या ५८ इत्यादि। अपर्याप्त तिर्यश्च तथा अपर्याप्त मनुष्य को १०९ प्रकृतियों का जो बंध कहा है, वह सामान्य तथा विशेष दोनों प्रकार से समझना चाहिये; क्योंकि इस जगह 'अपर्याप्त' शब्द का मतलब लब्धि अपर्याप्त से है, करण अपर्याप्त से नहीं; और लब्धि अपर्याप्त जीव को पहला ही गुणस्थान होता है। ___'अपर्याप्त' शब्द का उक्त अर्थ करने का कारण यह है कि करण अपर्याप्त मनुष्य, तीर्थङ्कर नाम कर्म को बांध भी सकता है, पर १०९ में उस प्रकृति की गणना नहीं है।।९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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